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अज्ञान के मचान से : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


सुनते हैं कि राजा विक्रमादित्य जब तक ज्ञानवश बेताल के प्रश्नों का उत्तर देता रहा, बेताल उसके नियंत्रण से जाता रहा।जब विक्रमादित्य अज्ञानवश मौन हो गया तो बेताल भी नियंत्रित हो गया।अज्ञान की ऐसी महिमा है।ज्ञान तर्कों को जन्म देता है। तर्क मौन नहीं रह सकते। और असल फसाद की जड़ तर्क ही हैं।अज्ञानी ज्ञान की तलाश में रहते हैं। उन्हें तर्क गढ़ने की फुर्सत कहां। जैसे ही ज्ञान मिला कि फुर्सत ही फुर्सत है। हालांकि यहां यह संशोधन आवश्यक है कि तर्क गढ़ने योग्य ज्ञान अधूरा होता है। पूर्ण ज्ञान तर्कों के झमेले से परे होता है।उसे किसी से प्रमाणित होने की आवश्यकता नहीं होती। तर्कों की जोर आजमाइश तो केवल सबल सिद्ध होने के लिए होती है परंतु खिताबी ज्ञान की किसी से क्या प्रतियोगिता।अज्ञानी होना बिल्कुल बुरा नहीं।ज्ञानी होना बेहद अच्छा है। परंतु अधूरे ज्ञान के बोझ से कुंठाग्रस्त हो जाना और तर्कों के हथियार लेकर घूमना स्वयं के लिए और अन्यों के लिए खतरनाक हो सकता है। इसके स्थान पर अपना पक्ष रखकर मौन हो जाना ज्यादा अच्छा है। हालांकि ऐसा हो नहीं पाता। तो फिर क्या करें?ज्ञान के शस्त्र पर हमेशा धार लगाते रहें परंतु उसका तर्कों के संग्राम में दुरुपयोग न करें। एक गंतव्य पर पहुंच कर ज्ञान और अज्ञान की अवस्था एक जैसी हो जाती है जहां जानने की इच्छा संपन्न हो जाती है।


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