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शासकों ने पूर्व समय में धार्मिक स्थल, साहित्य और संस्कृति को ध्वस्त करने के कार्य किये है: राजेश बैरागी

 फ्यूचर लाइन टाईम्स 


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अयोध्या के राममंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय क्या विवादों से परे है? क्या सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और न्याय दो अलग-अलग चीजें हैं? 'कुछ नहीं तो यही सही' शीर्षक से मेरी कल की पोस्ट पर पत्रकार साथी सईद अहमद ने टिप्पणी करते हुए ऐसे ही सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा,-यह सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय था, न्याय नहीं।जब मूर्तियां रखना अवैध माना, मस्जिद तोड़ना
अवैध था। फिर....। संभवतः यह एक बड़े वर्ग की आवाज हो सकती है।हो सकता है कि देश के बहुत से लोग (केवल मुस्लिम नहीं) ऐसा सोचते हों कि जब मूर्तियां रखना अवैध माना और ढांचा ढहाए जाने वाले लोगों के प्रति कोई मुरव्वत नहीं बरती तथा मुस्लिम समुदाय को मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन देने का आदेश सरकार को दिया तो फिर 'रामलला विराजमान' विवादित स्थल के एकछत्र स्वामी कैसे हुए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने हजारों पन्ने के निर्णय में पुरातत्व विभाग की जांच रिपोर्टों के आधार पर यह कहने में गुरेज नहीं किया कि मस्जिद किसी पूर्व निर्माण के ऊपर तामीर की गई थी।आज न मंदिर बनाने वाले उपस्थित हैं और न मस्जिद बनाने वाले। ऐतिहासिक साक्ष्यों और जनश्रुति के आधार पर यह सर्वमान्य है कि अलग-अलग शासकों के समय में धार्मिक स्थल, साहित्य और संस्कृति को ध्वस्त करने के कार्य किये गये। वर्तमान में जीवित लोग हिन्दू हों या मुसलमान केवल अंदाजा लगा सकते हैं और राय बना सकते हैं। जहां तक अदालत के निर्णय को न्याय मानने या न मानने का प्रश्न है तो कोई भी निर्णय न्याय का केवल आकांक्षी हो सकता है,यह लोगों पर निर्भर करेगा कि उन्हें यह अपने लिए कैसा लगता है। निर्णय को न्याय की कसौटी पर परखना एक बात है और न्याय सुझाना दूसरी बात। मेरी निजी राय में झगड़े झंझट का समाधान होना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्याय की कसौटी पर उतना खरा भले ही न हो परंतु समाधान की कसौटी पर खरा है।


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