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सत्ता के लिए राम, सत्ता के लिए राम से राम राम : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


जरूरी नहीं कि यह सच हो परंतु जैसा सुना है कि उद्धव ठाकरे अब रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या नहीं जायेंगे।हो सकता है कल वो यह भी कहें कि ६ दिसंबर १९९२ को विवादित ढांचा गिराने में कोई शिवसैनिक शामिल नहीं था। शायद अब वो यह भी कहना चाहें कि बाबरी मस्जिद का अयोध्या काण्ड विश्व में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ की गई सबसे जघन्य घटना थी। ये सब अनुमान भर हैं।ये हो भी सकता है और नहीं भी। सत्ता की लत ही ऐसी है जिसकी खातिर धर्म,ईमान, उसूल,रसूल सबको ताक पर रखा जा सकता है। यह चलन(फैशन) है जो चरित्र तक जाता है।बाला साहेब ठाकरे के अभाव में शिवसेना जिस राजनीतिक उतार पर है उसका मुकाम यही है। सत्ता के लिए घोर विरोधियों से गले मिलने से पहले गिरेबान में लगी पुरानी मैल को हटाना ही पड़ता है। सत्ता के अपने उसूल होते हैं। पार्टी के उसूल कोई मायने नहीं रखते। उद्धव यही कर रहे हैं। किसी शायर ने क्या खूब कहा है,-भूखे को देशभक्ति सिखाने वालो,भूख आदमी को गद्दार बना देती है।राम किसी का बुरा नहीं मानते।उनका भी नहीं जो 'कसम राम की खाते हैं' कहकर सत्ता में आए और मंदिर नहीं बनाया। अब जब मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया है, राममंदिर शायद अब चुनावी मुद्दा भी न रहे तो अब राम की क्या जरूरत। वैसे भी राम किसी का बुरा नहीं मानते हैं तो उद्धव ने जैसा सुना है रामलला के दर्शनों से तौबा कर ली है। सत्ता का यही सत्य है।


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