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संवेदना , विपश्यना व भावना : डॉ. ओम प्रकाश 

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


मानव शरीर की ज्ञानेंद्रिय का जब कि सी बाहरी दृश्य, शब्द या विचार से स्पर्श या संपर्क होता है तो शरीर पर कोई-न-कोई प्रतिक्रिया होती है, चाहे वह सुखद हो या दुःखद, असुखद हो या अदुःखद, पर होती अवश्य है। ऐसा कैसे होता है, कुछ उदाहरणों से देखें। कानों पर कोई शब्द आया, सुनने वाले ने सुना, पहचाना, मूल्यांकन किया -यह तो गाली का शब्द है, मेरे अपमान का शब्द है - यह जानकर वेदना हुई। वेदना या जानकारी होते ही मन के द्वारा शरीर की अंतःस्रावी (endocrine) ग्रंथियों पर प्रभाव पड़ा और उनमें से स्रवण (secretion) हुआ। उसके परिणामस्वरूप हृदय का धड़कन बढ़ी, चेहरा तमतमा उठा, शरीर कापने लगा, मुँह से अपशब्द निकलने लगे, जो पहले कभी नहीं कहा था, वह कहा जाने लगा। यह सब हुआ, अर्थात सुनने वाले में क्रोध जागा; एक विकार जागा। इसी प्रकार कोई भयानक दृष्य देखा या भयावह विचार आया। कोई विस्फोटया भूचाल का ज्ञान हुआ, तो मन में भय उत्पन्न हुआ
और परिणामस्वरूप शरीर पीला पड़ गया; भय से थरथर कांपने लगा, उस स्थान से हट जाने या भागने की तीव्र इच्छा होने लगी। अर्थात, बाहरी कारण से भीतर प्रतिक्रिया हुई।


ऐसे ही वासना उठी या कोई ऐसा दृष्य देखा या कुत्सित विचार मन में आया, या प्रेम भरे शब्द सुने तो दूसरे प्रकार की जीव-रासायनिक प्रक्रिया हुई और मन में गुदगुदी होने लगी। शरीर पुलक- रोमांच से भर उठा और मुख से भी प्रेमभरे शब्द निकलने लगे- राग का विकार जागा। इस प्रकार बाह्य कारणों के द्वारा शरीर के भीतर नाना प्रकार की जीव-रासायनिक प्रक्रिया होती है और इन प्रक्रियाओं की हलचल शरीर पर पुलकन, स्पंदन, गर्मी, सर्दी आदि के रूप में होती है। बाहर का वातावरण ज्यादा उण्ण हो, याने शरीर के तापमान से ज्यादा हो तो शरीर के भीतर तापमान को सम रखनेवाली ग्रंथियां अपना काम आरंभ कर देती हैं। उनके प्रभाव से पसीना आता है। इसका उद्देश्य यही होता है कि त्वचा को कुछ ठंडा कर दिया जाय। पसीना आ गया तो शरीर में जल की न्यूनता आयी तो प्यास लगती है और व्यक्ति पानी पीता है। यह हुआ वातावरण का असर । इसी प्रकार वातावरण ज्यादा शीतल हो गया, तापमान शरीर को ठंडा करने लगा तो हमारे जीव-रासायनिक तंत्र तुरंत शरीर को कॅपाने लगते है। शरीर कापता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शरीर का कंपन, शरीर की मांसपेशियों के सिकुड़ने, संकुचित होने और फैलने से होता है। रोमों का खड़ा होना भी । उनकी मूल में लगी छोटी-छोटी मांसपेशियों के सिकुड़ने से होता है। मांसपेशियों के सिकुड़ने-फैलने से गर्मी उत्पन्न होती है। शरीर ठंडा होने से बचता है। यह प्रकृति का अपना तरीका है। व्यक्ति अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने ऊपर कंबल, रजाई आदि ओढ़ लेता है, आग के पास बैठता है या कमरों को वातानुकूलित करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि बाहरी कारणों से , चाहे वे त्वचा का स्पर्श करते हों या कान, नाक, आंख, जिह्वा आदि का स्पर्श करते हों; उनकी जीव-रासायनिक (Bio-chemical) प्रक्रिया होती ही है।


इतना ही नहीं, मांसपेशियां जब संकुचित होती और फैलती हैं तो उनसे विद्युत तरंगें भी उत्पन्न होती हैं । वे भी ऋण और धन (Plus और Minus) दो प्रकार की होती हैं तथा उनके चुंबकीय परिवर्तन भी होते हैं।
विज्ञान-शास्त्रियों ने इन विद्युत चुंबकीय तरंगों का अध्ययन करने के लिए यंत्र बनाये और इनकाउपयोग अब शरीर व्याधियों के निदान के लिए होने लगा है। E.C.G (इलक्ट्रो-कारडियो-ग्राम) और E.E.G (इलेक्ट्रो इनसेफे लो ग्राम), Holder, Eko, आदि हृदय और मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली तरंगों को कागज पर उतार कर उनका अध्ययन कर रोग के निदान में सहायक होते हैं। यह शरीर एक महान कार्यशाला है जिसमें सदा दिन-रात, अविचल रूप से कुछ-न-कुछ जीव-रासायनिक या विद्युत-चुंबकीय हलचल होती रहती है।


इतना ही नहीं, मन में उत्पन्न होनेवाले विचार, विश्वास और कल्पनाएं आदि का भी जीवन-क्रिया पर विद्युत-रासायनिक प्रभाव है। पोसिट्रोन एमिशन (Positron emission) टोमोग्राफी (Tomography) परीक्षण द्वारा मस्तिष्क पर इनका प्रभाव देखा जा सकता है । जैसे-जैसे विचार और अनुभूति बदलती है वैसे-वैसे कोषों में भी परिवर्तन आता है। यह सिद्ध हो गया है कि विचार यद्यपि अमूर्त (abstract) हैं, वे भी भौतिक तत्त्व (matter) का रूप धारण करते हैं। यह क्रिया हाइपोथलमस (Hypothalmus) नामक अंतःग्रंथि में होती है जो इन विचारों और अनुभूतियों को न्यूरोपेप्टाइड (Neuropeptide) नामक रासायनिक पदार्थ में परिवर्तित करती है। इन न्यूरोपेप्टाइडों द्वारा शरीर की विभिन्न अंतःग्रथियों को तथा शरीर के प्रत्येक भाग में स्थित 80-100 लाख, करोड़ (Trillion) कोशिकाओं को संदेश दिया जाता है। फलस्वरूप जीव-रासायनिक परमाणु, जो इनके प्रभाव से बनते हैं, इन कोशिकाओं को प्रभावित करते हैं ।


उदाहरणस्वरूप शोक पूर्ण विचार, चिंता पैदा करने वाली बातों के प्रभाव से इन कोशिकाओं द्वारा आमाशय में अम्ल (Acid) का प्रभाव बढ़ जाता है या धमनियों का संकुचन होता है, जिससे रक्तचाप, हृदयगति में बढ़ोतरी या पेट में जलन होती है। इसी प्रकार सुखद विचार और भाव एन्डोरफिन (Endorphin) का उत्पादन करते हैं, तो शरीर में हल्कापन,मन में प्रफुल्लता होती है और हृदय रोग, कैंसर आदि से बचाव में सहायक होते हैं। इस प्रकार के बीसियों न्युरोपेप्टाइड (Neuropeptide) पहचाने गये हैं। संक्षेप में कहा जाय तो - यह होगा कि “विचारों द्वारा उत्पन्न रासायनिक और जीव-रासायनिक प्रभाव हमारे स्वास्थ्य को अत्यंत ही प्रभावित करते हैं।"


अतः इन विचारों और संवेदनाओं को उचित प्रकार से वश में करना शांति देता है। इसी प्रकार उचित नैसर्गिक (Natural) व्यवहार अच्छे परिणाम स्वत: लाते हैं, उसी तरह जैसे एक सूर्यमुखी का फूल स्वभाव से ही सूर्य की ओर फिरता है, यद्यपि वह सूर्य से करोड़ों मील दूर है। इसी प्रकार साधना मन की स्थिति ऐसी बना देती है कि तनाव भी अच्छे तनाव (Stress) में बदल जाता है और रक्तचाप, हृदयरोग आदि से बचाव में सहायक होता है।
(आंकड़े हिन्दुस्तान टाइम्स' - २६/८/९० के लेख के आधार पर) 


Suffering ceases when sensations cease.
___- S.N.Goenka 
जब संवेदना समाप्त होती है, समता आ जाती है, तो दुःख का निरोध हो जाता है।
- (गोयन्का )


इन सब प्रक्रियाओं को साधारणतया हम जान या अनुभव नहीं कर पाते हैं। अंतर्मन और मन का कुछ अंश ही इन्हें अनुभव करता है।
इन सब प्रक्रियाओं का शरीर स्तर पर भी प्रभाव पड़ता है। यह हमने ऊपर देख लिया है। इन प्रक्रियाओं के प्रभाव की अनुभूति ही वेदना है। वेदना शब्द का अर्थ जानना या ज्ञान होता है। यह संस्कृत के 'विद' से बना है- इसी विद धातु से वेद, विद्या, विद्वान, वेदगू शब्द बने हैं। वेदना का मौलिक अर्थ समय के फेर से बदल गया है। अब तो भारत की प्रत्येक भाषा में वेदना शब्द का अर्थ पीड़ा ही रह गया है। आरंभ में इसका अर्थ अनुभूति - सुखद-दुःखद या असुखद-अदुःखद के लिए होता था। अब इसे और स्पष्ट करने के लिए संवेदना शब्द का प्रयोग किया जाता है। शरीर में होनेवाली किसी प्रकार की अनुभूति हो, वह चाहे किसी कारण से हो, संवेदना शब्द के अंतर्गत आती है। चाहे वह रोग या व्याधि से हो, देर तक बैठने से हो अथवा शरीर के भीतर होने वाली जीव-रासायनिक विद्युत-चुंबकीय कारणों से हो । सब की अनुभूति संवेदना के अंतर्गत आती है। जब मन अति तीक्ष्ण या संवेदनशील हो जाता है, तो इन तरंगों या इनके प्रभाव से शरीर पर होनेवाली संवेदनाओं को अनुभव करता है; चाहे मन से अथवा अंतर्मन से।


समस्त शरीर, शरीर के सारे अंग-प्रत्यंग, छोटी-छोटी इकाइयों से बने हैं। इन्हें Cells या कोशिका कहा जाता है। अंग-प्रत्यंग में इन कोशों का समूह होता है जो एक दूसरे की सहायता से शरीर की प्रत्येक क्रिया का संपादन करते हैं। ये कोश स्वयं भी सहस्त्रो अणु-परमाणुओं से बने हुए हैं और ये अणु और परमाणु भी electron और proton से बने हुए हैं। ये proton और electron स्वयं केवल विद्युत तरंग मात्र हैं, जो निरंतर गति करते ही रहते हैं।


सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पक म्पितो। सब कुछ तरंग ही तरंग है और प्रकंपन करता रहता है। उदय होता है-व्यय होता है। एक तरंग उठती है और तुरंत नष्ट हो जाती है।उपज्जित्वा निरुज्झन्ति।


विपश्यना के अभ्यास के द्वारा इन तरंगों द्वारा उत्पन्न हुई संवेदना के अनित्य स्वभाव को साधक अपनी स्वयं की अनुभूति द्वारा तटस्थभाव से देखते - देखते इनके द्वारा उत्पन्न – राग, द्वेष दोनों विकारों से मुक्त होने लगता है। पूरी तरह मुक्त होना सरल नहीं है, मार्ग लंबा है। परंतु धीरे-धीरे जितना मार्ग तय होता जाता है, उतने अंशों में विकारों की जकड़न से छुटकारा मिलता जाता है। यह साधक को स्वयं अनुभव होने लगता है और उसके रहन-सहन, बातचीत, व्यवहार को देखकर उसके संगी-साथियों, परिवार के सदस्यों और मित्रों को भी साधक में अभूतपूर्व परिवर्तन दीखने लगता है।


नवम्बर  1990 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित


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