फ्यूचर लाइन टाईम्स
भारतीय परंपरा में साधुओं के साथ-साथ शिक्षकों, विद्वानों को भी सहज सम्मान देने की प्रवृत्ति रही है, लेकिन जिस तरह रंगे कपड़े पहनकर नकली लोग भी कई बार "साधु" कहला लेते हैं, उसी तरह बड़े अकादमिक पद पर रहकर सामान्य लफ्फाज भी "विद्वान" कहलाते हैं। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है।
गत 18 अगस्त को प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता के दीक्षांत समारोह में इतिहासकार प्रो. रोमिला थापर ने फरमाया, ''उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रंथों में एक से अधिक बार यह कहा गया है कि सबसे सम्मानित ऋषि और विद्वान दासीपुत्र होते थे, यानी जिनकी माताएं निम्न कोटि की दासियां थीं।'' अपनी आदत के मुताबिक, प्रो. थापर ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया कि ऐसी अनोखी बात किस उपनिषद् या ब्राह्मण ग्रंथ में कही गई है? या तो उन्होंने किसी बात से नासमझी में मनमाना निष्कर्ष गढ़ लिया, या किसी ने उन्हें ऐसा निष्कर्ष थमा दिया। लेकिन बिना इसकी परीक्षा किए इसे आधार बनाकर प्रो. थापर ने अपना वर्ग-विभेदी व्याख्यान दे डाला। यह निस्संदेह विद्वान की नहीं, सामान्य राजनीतिक प्रचारक की प्रवृत्ति है, जो काम आने लायक किसी भी झूठ-सच को अपने प्रचार का आधार बना लेता है। उसकी परख नहीं करता। आखिर प्रो. थापर वेदों की अधिकारी विद्वान तो क्या, अध्येता तक नहीं रही हैं। छांदोग्य उपनिषद् तथा विविध स्मृतियों, सूत्रों में यह भी कहा गया है कि वेदों को समझने के लिए किसी वेदज्ञ ब्राह्मण के निर्देशन में कम से कम 6 वर्ष तक अध्ययन करना अनिवार्य है। जबकि प्रो. थापर को संस्कृत भाषा तक नहीं आती। उनकी तमाम पुस्तकों से साफ दिखता है कि उनका संपूर्ण अध्ययन प्राय: देशी-विदेशी अंग्रेजी पुस्तकों, वह भी अधिकांश विशेष वैचारिक झुकाव वाली दोयम दर्जे की स्रोत-सामग्री पर आधारित है। उस सामग्री में प्रामाणिक वेदज्ञों का नाम तक नहीं मिलता, उन्हें पढ़ना-जानना तो दूर रहा। अत: प्रो. थापर किसी हाल में वेदों पर बोलने की अधिकारी नहीं हैं।
उनके इस वक्तव्य पर एक वैदिक विद्वान से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा में कहीं भी जन्म आधारिक विद्वता का कोई उल्लेख नहीं है। किसी ऋषि या ज्ञानी का महत्व उसकी सत्यनिष्ठा तथा ज्ञान की गहराई पर निर्भर रहा है, इस पर नहीं कि उसका जन्म किस पेशे या जाति के परिवार में हुआ। किसी के पिता, माता या वंश का उल्लेख प्राय: परिचय के लिए होता रहा है।
वैदिक प्रार्थनाएं भी सद्विचारों, सद्-उद्देश्यों को ही बार-बार दुहराती हैं। उस संदर्भ में निम्न जाति या उच्च वंश की बात अनर्गल है। प्रो. थापर द्वारा ऐसा कहना और इस पर जोर देना उनके पुराने कम्युनिस्ट दुराग्रह का जोर है, जिसमें वर्ग को केंद्रीय महत्व दिया जाता है। तुम किस वर्ग के, वह किस वर्ग का? पहले यह देखकर तब सारी बात चलती या तय होती है। उसी मतवादी मानसिकता को प्रो. थापर कोलकाता में भोले-भाले युवाओं में वेदों के हवाले से घुसाने की कोशिश कर रही थीं।
यह विद्वता या ज्ञान की पहचान नहीं है। ज्ञान की पहली सीढ़ी है खोज, अन्वेषण। प्रो. थापर और उनकी मार्क्सवादी जमात के लिए यह चीज सिरे से महत्वहीन रही है। आरंभ से ही उनका संपूर्ण लेखन कुछ तयशुदा मार्क्सवादी, राजनीतिक अंधविश्वासों को जैसे-तैसे थोपने की परियोजना भर रहा है। उन्होंने किसी विषय-बिंदु पर तथ्यों का भंडार इकट्ठा कर फिर निष्कर्ष नहीं निकाले, बल्कि किसी बने-बनाए निष्कर्ष को जमाने के लिए जहां-तहां से आधे-अधूरे तथ्यों, अनुमानों, मनमानी व्याख्या और अपने ही जैसे दूसरे प्रचारकों को उद्धृत करके काम चलाया।
एक प्रकार से यह धोखाधड़ी भी थी कि जिस बात का स्वयं प्रामाणिक परीक्षण न किया हो, न उस पर किसी प्रामाणिक विद्वान से अनुशंसा ली हो, उसे सत्य की तरह प्रचारित करना। प्रो. थापर जैसों में यह प्रवृत्ति आज तक नहीं बदली है! इसीलिए कहना पड़ता है कि उनकी गणना पाखंडी विद्वानों में होनी चाहिए। इनसे भी समाज को गंभीर हानि होती है, यह ध्यान रखना चाहिए। प्रो. थापर और उनके संप्रदाय के 'विद्वानों' ने पिछले चार-पांच दशक में हमारे देश को भारी क्षति पहुंचाई है। उदाहरण के लिए, हाल में प्रतिष्ठित पुरातत्ववेत्ता तथा आर्कियोलॉजिकल सर्वे आॅफ इंडिया के निदेशक रहे श्री के.के. मुहम्मद की आत्मकथा आई है। इसमें उन्होंने लिखा है कि 1976-77 में ही अयोध्या के राम-जन्मभूमि-बाबरी ढांचे वाले स्थल की खुदाई में मंदिर के अनेक प्रमाण मिले थे। तब कोई आंदोलन शुरू नहीं हुआ था। जब आंदोलन उठा तब मुहम्मद ने वहां मंदिर रहे होने की बात प्रकाशित कराई थी, किन्तु प्रो. थापर समेत कई मार्क्सवादी इतिहासकारों ने समवेत् ताकत लगाकर प्रचार किया कि वहां कभी कोई मंदिर नहीं था, सारा आंदोलन हिन्दू संगठनों की करतूत है। आज संपूर्ण साक्ष्यों के सामने अपने पर अंतत: न्यायालयों ने भी माना कि वहां मंदिर रहा था। तब प्रो. थापर द्वारा झूठा प्रचार किस प्रकार का काम था? इस प्रसंग पर श्री मुहम्मद ने जो टिप्पणी की है वह विचारणीय है। वे कहते हैं कि "जब तक मार्क्सवादी इतिहासकार अयोध्या मामले में नहीं कूदे थे, तब तक मुस्लिम उसके शान्तिपूर्ण समाधान के लिए तैयार थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उसकी तैयारी भी कर ली थी। यह इसलिए संभव था कि तथ्यों पर हिन्दू और मुस्लिम पक्ष में मतभेद नहीं था। दोनों जानते थे कि अयोध्या में राम-जन्मभूमि मंदिर स्थल पर ही बाबर ने ढांचा खड़ा किया था। विवाद मात्र समाधान के स्वरूप और जमीनी लेन-देन का था। लेकिन प्रो. थापर और उनके मार्क्सवादी संप्रदाय के इतिहासकारों ने अपने दबदबे का प्रयोग कर मुस्लिमों को यह कहकर समाधान से विमुख किया कि हिन्दू संगठनों का दावा फर्जी है, उनसे समझौता करना गलत होगा।"
इसके लिए 1989 में प्रो. थापर के नेतृत्व में जे.एन.यू. के 25 इतिहास प्रोफेसरों ने समवेत् रूप से एक पुस्तिका प्रकाशित की थी- 'पोलिटिकल एब्यूज आॅफ हिस्ट्री' (इतिहास का राजनीतिक दुरुपयोग)। इसमें उन्होंने दावा किया कि ''अब तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं जिससे सिद्ध हो कि बाबरी मस्जिद वहीं बनाई गई जहां पहले मंदिर था।'' इस तरह, जो आरोप हिन्दुओं पर कभी किसी ने नहीं लगाया, न मुसलमानों ने, न अंग्रेजों ने, वह प्रो. थापर ने जड़ दिया था! यह आरोप कि हिन्दू लोग झूठ-मूठ वहां राम-जन्मभूमि होने का नाम ले रहे हैं!!
चूंकि यह झूठा प्रचार बड़े पैमाने पर मीडिया के माध्यम से देश-विदेश में फैला, इसलिए शह पाकर मुस्लिम नेता अड़ गए! श्री मुहम्मद के अनुसार, ''मार्क्सवादी इतिहासकारों और कुछ बड़े अखबारों के घातक संयोजन ने मुस्लिम समुदाय को बिल्कुल गलत जानकारी दी। यदि वह न हुआ होता तो मुस्लिम शान्तिपूर्ण समाधान स्वीकार कर लेते। यदि यह हो गया होता, तो आज अनेक दूसरे मुद्दे जो देश झेल रहा है, सुलझ गए होते।'' इस बात पर विचार करें, तभी उस गंभीर राष्ट्रीय हानि का अंदाजा होगा, जो अयोध्या पर प्रो. थापर जैसे मार्क्सवादियों के हस्तक्षेप से हुई थी। नोट करने की बात यह है कि थापर या अन्य मार्क्सवादी इतिहासकारों ने आज तक अपने उस कुकृत्य पर पश्चाताप नहीं किया है। यह उनके पाखंडी कार्यों का एक उदारण मात्र है।
गत चार-पांच दशकों से उन्होंने ऐसे अनेक कार्य किए हैं। पिछले साल रोमिला थापर ने अपने लिए स्वयं यह नाम घोषित किया: 'जेएनयू के डायनासोर'! यह उन्होंने जे.एन.यू. में मुहम्मद अफजल तथा 9 फरवरी की घटना के बाद एक भाषण देते हुए कहा। कुछ अर्थों में यह संज्ञा सटीक है। खासकर, नाम बड़े और दर्शन छोटे या कि "बुद्धि छोटी" वाले अर्थ में।
जे.एन.यू. में अफजल वाली घटना का उल्लेख करके भी प्रो. थापर ने 'जेएनयू के टूटने' की संभावना पर चिन्ता की, मगर 'भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह!' पर कुछ नहीं कहा! इसका यही मतलब हुआ कि भारत टूटे तो टूटे, पर जेएनयू में वामपंथी, इस्लाम-परस्त प्रचार यथावत् चलता रहे, ऐसी बुद्धि यदि क्षुद्र और पाखंडी विद्वता का उदाहरण नहीं, तो और क्या है? वस्तुत: प्रो. थापर के उस भाषण की पूरी धार केवल संघ-भाजपा केंद्र सरकार के विरुद्ध थी। उसमें न राष्ट्र की चिंता थी, न राष्ट्रवाद की परिभाषा की। भारत को तोड़ने की उग्र नारेबाजी पर थापर की बेफिक्री यूं ही नहीं थी। अनेक पुराने मार्क्सवादियों की तरह वे भी भारत की एकता या विखंडन के प्रति बेपरवाह हैं। इसे दूसरे लोगों ने भी नोट किया है।
प्रो. थापर की भाभी राज थापर (प्रसिद्ध अंग्रेजी मासिक "सेमिनार" की संस्थापक, संपादक) की आत्मकथा 'आॅल दीज ईयर्स' में एक घटना का उल्लेख मिलता है।
यह बात 1980 की है। तब डॉ. कर्णसिंह केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री थे। उन्होंने अपने मित्र रोमेश थापर से एक दिन शिकायत की कि उनकी बहन रोमिला 'अपने इतिहास लेखन से भारत को नष्ट कर रही है।' इस पर उनकी रोमेश से तकरार भी हो गई। राज थापर ने यह प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखते हुए रोमिला का कोई बचाव नहीं किया। उलटे अपने पति रोमेश को ही झड़प में कमजोर पाया जो 'केवल भाई' के रूप में कर्ण सिंह से उलझ पड़े थे।
दुर्भाग्यवश, यह सब देखने, इसके गंभीर निहितार्थ समझने, और इसकी काट या उपाय करने पर जैसा ध्यान दिया जाना चाहिए था, वह किसी ने नहीं दिया। अन्यथा तो जो चीज डॉ. कर्णसिंह को दिखाई पड़ी, वह राष्ट्रवादी राजनीति को भी दिखनी चाहिए थी। पर स्वतंत्र भारत में हिन्दू-द्वेषी प्रचार के दुष्प्रभाव को गंभीरता से नहीं लिया गया। अयोध्या प्रसंग पर उनकी घातक भूमिका इसीलिए सफल हुई।
इस उपेक्षा का ही दुष्परिणाम है कि भारत में समाज ज्ञान और साहित्य का अध्ययन-अध्यापन हर तरह की हिन्दू-द्वेषी और देश-विरोधी राजनीति का अड्डा बन गया। दुनियाभर में कम्युनिस्ट राजनीति के पतन के बावजूद यहां 'जेएनयू के डायनासोर' अभी भी उसी तरह बेफिक्र, बल्कि घमंड के साथ वैदिक ज्ञान का उपहास उड़ाने तथा देशद्रोहियों के प्रति एकजुटता दिखाने में लगे हुए हैं। दशकों के प्रयत्नों से अब उनके चेले-चेलियां असंख्य अकादामिक पदों, मीडिया और अधिकारी वर्ग में भी हैं। उन्हें भी भारत के टूटने की नहीं, बल्कि समाज ज्ञान शिक्षण को यथावत् भारत-विरोधी प्रचार के रूप में बचाने की चिंता है।
इसीलिए संसद पर हमला करने वाला अफजल या आतंकी सूत्रधार याकूब मेमन, इशरत जहां आदि हर तरह के घाती यदि जेएनयू में हीरो बनाये जाते हैं, तो यह सब संयोग नहीं। आखिर ये लोग भारत को नष्ट ही तो करना चाहते थे! यानी, ठीक वह चीज जो बकौल डॉ. कर्ण सिंह, रोमिला थापर का लेखन चार दशक पहले से करता रहा है।
निस्संदेह, स्वतंत्र भारत में मार्क्सवादी प्रचारकों ने विद्वत पदों को हथियाकर शिक्षा को दूषित करने में भारी सफलता पाई है। उन्होंने भारतीय परंपरा में शिक्षकों-लेखकों को मिलने वाले सहज आदर का भारी दुरुपयोग किया है। नतीजतन पूरी सामाजिक और साहित्यिक शिक्षा का बंटाढार हो जाने पर भी ऐसे पाखंडी विद्वानों की पूछ बनी हुई है। जो लोग नकली साधुओं पर दुखी या कुपित होते हैं, उन्हें कभी पाखंडी प्रोफेसरों पर भी नजर फेरनी चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा पहुंचाई जा रही हानि दूरगामी और अधिक घातक रही है।
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