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राजनीति की नर्सरी बनाए जाने से बर्बाद हो रहा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



यह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की स्थापना का पचासवां साल है। ऐसे में उसकी उपलब्धियों की पड़ताल की जानी चाहिए। आज तक वहां से किसी चर्चित शोध, अध्ययन या लेखन संबंधी कोई समाचार सुनने को नहीं मिला। न केवल ज्ञान के क्षेत्र में, बल्कि खेलकूद, रंगमंच, कला या राष्ट्रीय नीति-निर्माण में भी उसका कोई योगदान नहीं रहा। जबकि पश्चिम के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय सामाजिक चिंतन, शोध, वैदेशिक अध्ययन आदि में उल्लेखनीय योगदान करते हैं। इसीलिए वे प्रसिद्धि पाते हैं, किंतु जेएनयू से आज तक कोई ऐसी पत्रिका तक प्रकाशित नहीं हो सकी, जिसे कोई जानता हो।


सवाल है कि ऐसा क्यों? दरअसल जहां राजनीति का सर्वाधिकार हो वहां गंभीर अध्ययन, लेखन नहीं पनप सकता। इसीलिए केवल वामपंथी राजनीति के समाचारों से ही जेएनयू चर्चा में रहा है। नवीनतम समाचार स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अपमान है, जिसे रफा-दफा करने के लिए फीस वृद्धि को लेकर हंगामा खड़ा किया गया। पिछली बार भी 'भारत तेरे टुकड़े होंगे...!' और 'अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं' वाली कुख्याति को दबाने के लिए वामपंथियों ने राष्ट्रवाद पर भड़कीली बहस की मुहिम चलाई थी।


दरअसल असली बात को दबाकर ध्यान बंटाने की वामपंथी तकनीक इसलिए सफल हो जाती है, क्योंकि उनके प्रतिद्वंद्वियों में समझ का अभाव है। उन्होंने मामले को सिर से पकड़ने के बजाय लजाते हुए 'राष्ट्रवाद' की अपनी नीति को स्थापित करने की कोशिश की है। फलत: वामपंथी निश्चिंत होकर हमले करते रहते हैं। इस प्रकार जिन्हें सफाई देनी थी, वही कोतवाल बन जाते हैं और जिन्हें हिसाब लेना था, वही अपना हिसाब देने लगते हैं। कायदे से वामपंथियों को कठघरे में खड़ा करना चाहिए था, क्योंकि वे आरंभ से ही जेएनयू के शैक्षिक वातावरण को विषाक्त करते रहे हैं।


एक बार भारत-पाक क्रिकेट मैच के दौरान जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगे थे। भारत की जीत पर खुशी मनाने वालों पर हमला हुआ था। उससे पहले अशोक स्तंभ वाले राष्ट्रीय चिन्ह को जूते के नीचे मसले जाते पोस्टर लगाए गए थे। करगिल यु्द्ध लड़ने वाले सैनिकों को जेएनयू में पीटा गया था, क्योंकि उन्होंने वहां एक मुशायरे में चल रही पाकिस्तानपरस्ती एवं भारत-निंदा का विरोध किया था। एक बार नक्सलियों द्वारा 70 सुरक्षाकर्मियों की हत्या किए जाने पर जेएनयू में जश्न मनाया गया था।


ऐसे ही समाचारों से जेएनयू सुर्खियों में आता है। वहां आरंभ से ही देसी-विदेशी भारत निंदकों को मंच मिलता है, किंतु देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तक को बोलने नहीं दिया जाता। ऐसा कोई भाजपा के मंत्रियों के साथ ही नहीं हुआ है, बल्कि इंदिरा गांधी और पी. चिदंबरम भी ऐसी स्थिति से गुजर चुके हैं। उनके विश्वविद्यालय में आगमन तक के विरुद्ध आंदोलन हुआ था। देखा जाए तो जेएनयू में स्वतंत्र या देशभक्त स्वरों को वैसा सम्मान नहीं मिला, जैसा माओवादियों, जिहादियों को मिला है।


जेएनयू में वामपंथियों को अरुण शौरी जैसे विशिष्ट विद्वान का व्याख्यान नागवार गुजरता था, जबकि स्टालिन, माओ और अराफात के लिए वे आहें भरते थे। वहां के नामी प्रोफेसर 'स्टालिन या त्रॉत्सकी' पर 'रात भर चलने' वाली बहसों के सिवा कुछ याद नहीं कर पाते कि उन्होंने वहां दशकों तक क्या किया? दरअसल जेएनयू में बेहतरीन सुविधाओं के कारण यह बात छिपी रही है कि ज्ञान हासिल करने के नाम पर वहां बताने के लिए कुछ नहीं है।


कुछ वर्ष पहले जब किसी पत्रकार ने जेएनयू की चार दशक की उपलब्धियों के बारे में वहां के रेक्टर से पूछा तो उनका जवाब था कि जेएनयू से अब तक सिविल सर्विस में इतने छात्र चुने गए हैं। सवाल है कि क्या इसीलिए यह विश्वविद्यालय बना था कि वहां नौकरी की तैयारी या माओवादियों, जिहादियों तथा विविध देशद्रोही, उग्र राजनीतिबाजी के आरामदेह अड्डे बनें? आखिर जिन छात्रों ने स्वामी विवेकानंद का अपमान किया, उन्हें किन संगठनों और सीखों ने ऐसा करने को प्रेरित किया?


सरकार को यही चिंता करनी चाहिए कि वहां सामाजिक विषयों की शिक्षा में क्या पढ़ाया जाता है और क्या नहीं? यही मूल गांठ है, जिसे खोलने पर ऐसी लज्जास्पद घटनाओं के दोहराव से मुक्ति मिलेगी। सरकार को जेएनयू में सियासी गतिविधियों और छात्रसंघ को खत्म कर देना चाहिए, जिसके जरिये वहां देश विरोधी राजनीतिक गतिविधियां होती रही हैं। अभिभावक भी ऐसे छात्रसंघ को समाप्त करने के पक्ष में होंगे, जो उनके बच्चों को देश विरोधी या हानिकर गतिविधियों में खींच कर उनका समय या जीवन खराब करता रहा है।


राजनीतिक नारे लगाने वाले छात्रों को शायद ही किसी समस्या का वास्तविक ज्ञान रहता है। वे कश्मीर, इस्लामिक स्टेट या हिंदुत्व के बारे में उतना ही जानते हैं, जितना जेएनयू में चहकने वाले पंछी। इसलिए उनका इस्तेमाल बाहरी, भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी रणनीतिकार करते हैं। अबोध उग्र छात्र भावना, जोश और अज्ञानता में अदृश्य ताकतों की सेवा कर रहे हैं।


चूंकि देश-विदेश के महान शिक्षा चिंतकों ने कभी यह अनुशंसा नहीं की है कि विश्वविद्यालयों को 'राजनीति की नर्सरी' बनाया जाए, इसलिए उसे रोकना उचित ही नहीं, अनिवार्य भी है। यदि ऑक्सफोर्ड जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में जेएनयू जैसे छात्रसंघ नहीं हैं तो वहां के छात्र कोई वंचित-पीड़ित तो नहीं हैं। छात्रों की भलाई के लिए भी विश्वविद्यालयों में राजनीतिक गतिविधियों का खात्मा जरूरी है।


छात्रों को केवल साहित्य, कला, संगीत, खेलकूद आदि के लिए ही सुविधाएं, प्रोत्साहन मिलने चाहिए। साथ ही समाज विज्ञान और मानविकी विषयों के पाठ्यक्रम की समीक्षा भी जरूरी है। जेएनयू में वामपंथी राजनीति का जीवन स्रोत यही रहा है।


इन विषयों में पढ़ाई का मुख्य लक्ष्य छात्रों में एक खास राजनीतिक मनोभाव भरना है। इसे बदले बिना इतिहास, दर्शन, साहित्य के मामूली शिक्षक भी पैदा नहीं हो सकते, विद्वान बनना तो दूर की बात है। यहां पढ़ाए जाने वाले साहित्य, इतिहास, राजनीति शास्त्र आदि में वामपंथी और हिंदू-विरोधी मतवाद के तत्व जगह-जगह, सुचिंतित रूप से जमाए गए हैं।


किसी महान लेखक, पुस्तक या महत्वपूर्ण प्रसंग को हटाकर मामूली पाठ या प्रसंग इसीलिए डाले गए हैं, ताकि छात्रों में इससे 'प्रगतिशील' यानी हिंदू-विरोधी मनोभाव को बल मिले। जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में समाज विज्ञान और मानविकी के संपूर्ण पाठ्यक्रम, पाठ्यसूची, शोध-दिशा आदि की आमूल समीक्षा होनी चाहिए। इसके बिना केवल जहां-तहां विवेकानंद की मूर्तियां लगवाकर उनका अपमान करवाना कोई समझदारी नहीं है।


विश्वविद्यालयों में एक एक्टिविज्म का जवाब दूसरे एक्टिविज्म से नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि तमाम राजनीतिक एक्टिविज्म को खत्म करके शुद्ध शिक्षा को स्थापित किया जाना चाहिए। यही शिक्षा का वातावरण बनाने का सही रास्ता है।


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