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पुनर्जन्मवाद का चिंतन : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


आजकल सर्वसाधारण में आर्यसमाज के कारण धर्म की चर्चा फिर होने लगी है। धर्मसम्बन्धी सिद्धान्तों के विवेचन की उत्कण्ठा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। जहाँ दो-चार शिक्षित मनुष्य बैठते हैं वहाँ कुछ-न-कुछ धर्म-चर्चा अवश्य होती है, परन्तु वर्तमान समय में पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर बहुत-से मनुष्यों को वाद-विवाद करते पाकर तथा ईसाई एवं मुसलमानों को बहुत ही तुच्छ युक्तियों से इस सिद्धान का खण्डन करते देखकर मुझे आवश्यकता प्रतीत हुई कि मैं भी इस विषय पर एक छोटा-सा लेख लिखें। यद्यपि पण्डित लेखरामजी ने इस विषय पर एक भारी पुस्तक लिखी है, परन्तु अधिक मूल्य होने के कारण सर्वसाधारण में उसका प्रचार बहुत ही थोड़ा हो सकता है। इसी विचार को अपने सन्मुख रखते हुए मैंने इस विषय पर लिखना उचित समझा। आशा है कि मेरा श्रम व्यर्थ नहीं जाएगा, क्योंकि जनता ने मेरे पिछले लेखों का आशातीत आदर किया है। 
      जितने मत कर्मों का फल मानते हैं, उनमें से कोई तो सज़ाए-आमाल कर्मफल-भोग के लिए क़यामत का दिन नियत करते हैं और कोई पुनर्जन्म द्वारा अर्थात् एक शरीर के त्यागने पर दूसरे शरीर के द्वारा कर्मफल-भोग की रीति मानते हैं। अब दोनों में कौन-सा सिद्धान्त तर्कसिद्ध हो सकता है, इसपर आज विचार करना है, परन्तु इसके पूर्व कि हम इस विषय पर विचार करना आरम्भ करें, प्रत्येक मनुष्य के लिए यह भी जानना आवश्यक है कि 'दण्ड' का क्या अभिप्राय होता है? जहाँ तक खोज से पता चला है, यही सिद्ध होता है कि दण्ड का अभिप्राय बदला लेना नहीं किन्तु सुधार करना है, क्योंकि हम देखते हैं कि यदि एक मनुष्य चोरी करता है या किसी को मारता है तो इसके बदले उसे कारागार भेज देते हैं। क्या कारागार में जाकर अपराधी दुष्कर्म का बदला पाता है? नहीं ! यदि बदला मिलता तो कारागार में उससे रुपये माँगे जाते, क्योंकि उसने चोरी से उठाये थे, या उसको भी मारा जाता, परन्तु वहाँ ये दोनों बातें नहीं होतीं, किन्तु हम देखते हैं कि उसे मारने के स्थान पर उसके हाथों में हथकड़ी लगा दी जाती है, क्योंकि वह हाथों से उठाता था, पाँवों में बेड़ी डाल दी जाती है, क्योंकि पाँवों की सहायता लेकर भागा। सुतरां जिन दो इन्द्रियों से चोरी की टेव डाली थी उनके अभ्यास को मिटाने के लिए उनकी शक्तियों को कुछ दिन के लिए निकम्मा कर दिया, जिससे कि वह उस बात को भूल जाए और कारागार से निकलकर पुनः ऐसे अपराध को न करे। यद्यपि हम देखते हैं कि बहुधा बन्दी कारागार से लौटकर भी चोरी करते हैं, परन्तु उसका कारण केवल यह है कि प्रथम तो मनुष्यकृत सरकार की यह शक्ति नहीं कि बुराई की जड़ मन को अधीन बना सके, क्योंकि सर्व कार्य मन द्वारा ही होते हैं। यद्यपि गवर्नमेण्ट ने हाथ और पाँव को रोककर उसको कायिक पापों से रोक दिया, परन्तु पाप को स्मरण रखनेवाली शक्ति उसके मन को न रोक सकने के कारण अर्थ सिद्ध नहीं हुआ। यदि सरकार में यह शक्ति होती कि किसी प्रकार वह मन को अधीन बना सकती तो कोई भी बन्दी कारागार से निकलकर चोरी करता? एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जितने मनुष्य चोर होते हैं वे जितने कर्म करते हैं उनके पाप-पुण्य का उत्तरदाता लोग होते हैं।
      जैसे एक मनुष्य एक रुपया नित्य कमाता है तथा चार आना नित्य व्यय करता है तो वह बारह आना नित्य बचा लेता है। यदि चार आना नित्य कमाता है तथा एक रुपया नित्य व्यय करता है तो बारह आना नित्य ऋणी हो जाता है, परन्तु कारागार में इसके सर्वथा विपरीत दशा है - वहाँ न तो कोई बचा सकता है, न भविष्य के लिए एकत्र कर सकता है और न ही ऋणी हो सकता है। मानो वह ऐसी दशा है जिसमें आगे के लिए हानि-लाभ करने की कोई शक्ति नहीं। इसके अतिरिक्त यह भी जानने योग्य है कि शरीर और आत्मा का सम्बन्ध मकान और मकीन (निवासी और स्वामी) का है। आत्मा शरीर में रहकर तो कर्मफल-भोग करता है और आगामी जीवन के लिए प्रबन्ध करता है। जिस प्रकार कोई जीव बिना घर के रह नहीं सकता और न ही काम कर सकता है, इसी प्रकार आत्मा भी बिना शरीर के कर्मफल नहीं भोग सकती। संसार में दो प्रकार के घर हैं-
       वे घर जिनमें रहकर मनुष्य हानि-लाभ उठाते हैं। जैसे कोई कङ्गाल तो अपने कर्मों से धनी हो जाता है और कोई धनवान् अपनी मूर्खता एवं दुराचार के कारण कङ्गाल बन जाता है; और 
      कारागार, जिसमें केवल कर्म-फल भोगते हैं, भविष्य के लिए कोई प्रबन्ध नहीं कर सकते, उसका समस्त सम्बन्ध केवल वर्तमान समय से होता है। इसी प्रकार परमात्मा ने भी जीवों के लिए दो ही प्रकार के घर बनाये हैं-
       वे जिनमें बैठकर जीव भले-बुरे कर्म कर सकता है और उससे अपने भविष्य का बिगाड़ या सुधार कर सकता है और हर समय कर्म करने में स्वतन्त्र रहता है। इसे कर्तव्य-योनि कहते हैं अर्थात् ऐसा शरीर जिसमें कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है; और 
       दूसरे, जो कारागार की भाँति है जो केवल बुराई की बान स्वभाव को छुड़ाने के लिए तथा कर्मफल भोगने के लिए नियत हैं, जिनमें बैठकर जीव भविष्य के लिए कोई प्रबन्ध नहीं कर सकता, उसे भोक्तव्य योनि कहते हैं। अब जिस प्रकार स्वतन्त्र मनुष्य पाप करके कारागार में जाते हैं और बन्दी बनाकर दण्ड देने का अभिप्राय सिद्ध हो सकता है, अन्यथा ऐसी दशा में दण्ड देना जबकि उसे पता ही नहीं कि उसने कौन-सा बुरा कर्म किया था जिसके अपराध में यह दण्ड मिला, न तो कुछ लाभकारी हो सकता है और न ही यह न्याय कहा सकता है। इसका उत्तर यह है कि दण्ड का अभिप्राय उस कुटेव को भुला देना है कि जिसका दण्ड उसे भोगना है। यदि उसे पाप का स्मरण है तो उसके करने की रीतियाँ भी स्मृति में होंगी। सुतरां जिस टेव को छुड़ाने के अर्थ दण्ड दियो गया था वह तनिक भी न छूटेगी और दण्ड का अभिप्राय सिद्ध न होगा।
      कतिपय मनुष्यों का यह आक्षेप है कि जिस प्रकार संसारी गवर्नमेण्ट प्रत्येक अपराधी को उसका अपराध बतलाकर उसे दण्ड देती है, इसी प्रकार परमेश्वर को भी अपराध बताकर दण्ड देना उचित है, जिससे कि भविष्य में अपराधी उस पाप से बचे। इसका उत्तर यह है कि मनुष्यकृत गवर्नमेण्ट अल्पज्ञ है और वह किसी अपराध को बिना साक्षी के सिद्ध नहीं कर सकती, अत: वह प्रथम अपराध लगाकर उसके सम्बन्ध में साक्षी आदि द्वारा अपना निश्चय दृढ़ करती है; और दूसरे, गवर्नमेण्ट का दण्ड बहुधा मेट भी दिया जाता है, क्योंकि बड़ा न्यायालय छोटे न्यायालय के अन्वेषण को सत्य नहीं समझता; अतः अपराधी को अपना निर्दोष होना सिद्ध करने के लिए उसके अपराध की सूचना दी जाती है, परन्तु परमेश्वर का न्यायालय सर्वज्ञ है, अत: न तो उसे साक्षियों की आवश्यकता है और न ही उसकी अपील (अभ्यर्थना) हो सकती है, क्योंकि उसमें भूल नहीं होती। अपील व पुनर्निरीक्षण केवल भूल को दूर करने के लिए की जाती है। यही कारण है कि मनुष्यकृत न्यायालय के बन्दी कारागार से मुक्त होकर भी उन्हीं पापों को करते हैं जिनके कारण वे कारागार गये थे, क्योंकि, जिन पापों की आदत छुड़ाने के लिए गवर्नमेण्ट ने उन्हें कारागार में भेजा था उनकी स्मृति मन में विद्यमान है। यद्यपि हाथों में उसकी टेव न्यून हो गई, परन्तु मन में रहने के कारण पूर्णतया नष्ट नहीं हुई और मन को बन्दी बनाना सांसारिक गवर्नमेण्ट की शक्ति से बाहर है।
      फलतः जहाँ वह मन में पाप की स्मृति रखता है और उसके करने की रीति की भी स्मृति रखता है, वहाँ पाप के दण्ड की भी स्मृति रखता है; परन्तु परमात्मा ऐसी अपूर्ण शक्ति नहीं । उसके कारागार अर्थात् पशुयोनि में जाते ही सबसे प्रथम मन को अधीन किया जाता है और मन के अधीन हो जाने से मन का सम्पूर्ण काम अर्थात् पुरानी बातों की स्मृति तथा उसके फलस्वरूप आगे के लिए इच्छा करना पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं, अत: जब मन कोई कार्य नहीं करता तो आगे और पीछे का वृत्तान्त स्मरण रखना और सोचना किस प्रकार हो सकता है। जो बात पुनर्जन्म के आशय को पूरा करनेवाली है उसको पुनर्जन्म के विरोध में रखना, पुनर्जन्म को न मानना उचित नहीं। स्मृति मन का काम है, जीवात्मा का नहीं, अत: जिन अवस्थाओं में मन का जीव के साथ सम्बन्ध नहीं होता उस समय कुछ भी स्मरण नहीं रहता, जिसकी साक्षी सुषुप्ति-अवस्था है। यदि सुषुप्ति-अवस्था में जब मन कार्य नहीं करता कोई स्मृति रहती तो आक्षेप ठीक हो सकता था।
      बहुत-से मनुष्य यह आक्षेप करते हैं कि यदि पशुयोनि में स्मृति न रहे तो मनुष्य-शरीर में आने से तो पुरानी बातें याद आनी चाहिए। उसका स्पष्ट उत्तर यह है कि पशुयोनि में मन की स्मरण-शक्ति के निकम्मा रहने के कारण उसकी ऐसी दशा हो जाती है कि बिना ठीक संस्कार हुए स्मरण रखने तथा समझने योग्य नहीं रहती। इसका प्रमाण उन बालकों की शिक्षा से मिलता है जो पशुयोनि से नरयोनि में आये हैं, जैसे एक कारीगर जब अधिक समय तक काम न करे तो उसके हाथ की सफाई बिगड़ जाती है और थोड़े समय तक वह काम करने से फिर प्रकट हो जाती है, इसी प्रकार मन की स्मरण-शक्ति मनुष्य-जन्म पाकर थोड़े दिनों में इस योग्य होती है कि वे स्मरण रख सकें। इसके अतिरिक्त मन में भी उस वस्तु के, जिसके साथ उसका सम्बन्ध होता है, संस्कार पड़ते जाते हैं। जो वस्तु निकल जाती है उसके संस्कार दब जाते हैं, और जो वस्तु सम्मुख रहती है उसके संस्कार बने रहते हैं। इस प्रकार गई हुई बातों को स्मरण करने के लिए चित्त की वृत्तियों को एकाग्र करके, नवीन विचारों से हटाकर प्राचीन विचारों को जानना पड़ता है। सुतरां जो मनुष्य योग के द्वारा प्राचीन विचारों को जानना चाहते हैं वे जान सकते हैं। उदाहरणार्थ एक कोठे में दो सौ मन गेहूँ डाल दिए हैं, तत्पश्चात् छ: सौ मन चना डाल दिया। अब प्रकट में इन आँखों से गेहूँ नहीं देख सकते, जबतक कि उसके ऊपर से चनों को न हटाया जाए। इसी प्रकार प्राचीन संस्कारों को जानने के लिए मन को नवीन संस्कारों से पृथक् करने की आवश्यकता है, जिसका साधन सिवाय योग के दूसरा नहीं। योगिजन अपने पिछले हाल और जन्मों को भलीभाँति जान सकते हैं, परन्तु सर्वसाधारण नहीं जान सकते, इसीलिए योगिराज कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा था
             बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन!
            तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप! ।।
            ---गीता ४।५ 
      हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं जिनको तू योगविधि न जानने के कारण नहीं जान सकता और मैं जान सकता हूँ।
      केवल हिन्दुओं में ही इसका प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु मुसलमान योगी भी जिन्होंने ईश्वरोपासना द्वारा चित्त की वृत्तियों को एकाग्र कर लिया है इस बात को मानते हैं कि हमारे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। देखो मौलाना रूम लिखते हैं


 इमचु सब्ज़ा बारहा रोईदः ऐम। 
            हफ्त सद हप्ताद क़ालिब दीदः ऐम॥ 
      अर्थात् सात सौ सत्तर बार जन्म लिया है।
      कतिपय लोग यह आक्षेप करते हैं कि पाप तो मनुष्य ने किया और दण्ड भोगें पशु-यह तो अन्याय है! परन्तु उनका यह विचार नितान्त असत्य है, क्योंकि मनुष्य-शरीर तथा पशुयोनि केवल जीवात्मा के कर्मानुसार आनन्द और दु:खभोग के लिए दो घर हैं। संसार में ही देखा जाता है कि पाप करते हैं घर में और दण्ड भोगते हैं कारागार में, परन्तु कोई इसे अन्याय नहीं कहता, क्योंकि कारागार या घर से कोई सम्बन्ध नहीं, सम्बन्ध केवल मनुष्य का है। इसी प्रकार मनुष्य-शरीर या पशुयोनि का कर्म और दण्ड से कोई सम्बन्ध नहीं, किन्तु दण्ड केवल जीवात्मा को कर्म करने में स्वतन्त्रता का न होना है। कतिपय मनुष्य जीव को शरीर से पृथक् नहीं मानते जोकि स्पष्ट भूल है, क्योंकि शरीर तत्त्वों से बना हुआ है जो नाश होकर अपने स्वरूप में मिल जाते हैं, परन्तु जीव प्रकृति का गुण या गुणी नहीं, क्योंकि जीवात्मा का गुण-ज्ञान प्रकृति में नहीं। यदि ज्ञान को भी प्रकृति का गुण मान लिया जाए तो मृत्यु तथा सुषुप्ति का होना असम्भव होगा, क्योंकि प्राकृतिक शरीर से ज्ञान जो उसका गुण है किसी अवस्था में पृथक् नहीं हो सकता। एक इस्लाम नगरी साहिब रघुबर शरण नामी ने इसी पुस्तक 'तरदीदे तनासुख' में यह लिख दिया कि ज्ञान बुद्धि का गुण है, क्योंकि जो काम ज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं वह बुद्धि से होते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि बुद्धि प्राकृतिक है या अप्राकृतिक? यदि कहो कि प्राकृतिक है तो ज्ञान प्रकृति के गुणों में सम्मिलित हो जाएगा, और जब ज्ञान प्रकृति में होगा तो कोई वस्तु जड़ नहीं हो सकती, इस प्रकार जड़ और चेतन का भेद उड़ जाएगा, क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु प्रकृति से बनी हुई है।
      अब फिर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ज्ञान मूलतत्त्व का गुण है या मिश्रित का? यदि मूलतत्त्व का है तो अग्नि आदि में भी ज्ञान का पता नहीं मिलती। यदि कहो कि मिश्रित में होता है तो नितान्त असत्य है, क्योंकि जो गुण मूलतत्त्व के भाग में न हो वह मिश्रित में कैसे आ जाएगा, जैसे बीस उष्ण ओषधियों को पिलाने से कभी शीतलता नहीं हो सकती जबतक ओषधि शीतल न हो, क्योंकि समस्त विद्वान् और विज्ञानवेत्ता इस बात से सहमत हैं कि प्रकृति में गति नहीं; यदि प्रकृति में गति होती तो जिस गेंद को हम फेंकते हैं वह लगातार चलती जाती, परन्तु होता इसके विरुद्ध है, अर्थात् जहाँ तक हमारी शक्ति से गेंद चल सकी चली गई और आगे जाकर रुक गई, अत: ज्ञान और गति प्रकृति के गुण नहीं हैं। यदि बुद्धि को अप्राकृतिक माना जाए तो वह जीवात्मा का दूसरा नाम होगा। कई लोग पुनर्जन्म के विरुद्ध यह युक्ति देते हैं कि संसार में मनुष्य से प्रथम पशु बने हैं, परन्तु यह बात भी अनभिज्ञता का प्रमाण है, क्योंकि जिस प्रकार रात्रि-दिवस का क्रम है कि रात्रि के पीछे दिवस तथा दिवस के पीछे रात्रि होती है और जिस भाँति कृष्णपक्ष के पीछे शुक्लपक्ष और शुक्लपक्ष के पश्चात् कृष्णपक्ष होता है और जैसे दक्षिणायण के पश्चात् उत्तरायण तथा उत्तरायण के पीछे दक्षिणायण होता है, यही क्रम प्रलयकाल तक पहुँच जाता है एवं जिस प्रकार मनुष्य प्रात:काल उठकर पिछले दिन के लेन-देन के अनुसार कार्यारम्भ कर देते हैं, इसी प्रकार सर्वदा सृष्टि के आरम्भ में पिछली सृष्टि के क्रमानुसार पशु तथा मनुष्यादि जन्म लेते हैं। यह भूल तो केवल वही मनुष्य करते हैं जिनके धर्मग्रन्थ १३००, १९००, २६०० या ३४०० वर्ष पुराने हैं, क्योंकि इनके पूर्व का वृत्तान्त उन्हें ज्ञात नहीं, परन्तु कुरान में भी कुछ पता पुनर्जन्म का चलता है देखो सूरए बक़र पृष्ठ ७, मितरज्जिम कुरान छापा नवलकिशोर कानपुर, पञ्चम संस्करण, पंक्ति १३
      तुम मुर्दे मृतक थे, जिलाया तुमको, फिर मुर्दा मृतक करेगा और फिर जिलाएगा, फिर तर्फ उनके आगे फिर जाओगे।
      पाठकगण ! पहले मृतक कहने से स्पष्ट विदित होता है वह कभी मरे थे, अब फिर जन्मे, फिर मरेंगे और फिर जन्म लेंगे। हमारे कतिपय मित्र इसका यह अर्थ करते हैं कि ईश्वर ने प्रथम अभाव से भाव किया। अभाव का नाम मृतक होता है और जन्म लेना भाव का नाम है; अब फिर अभाव कर देगा और फिर भाव करेगा। कतिपय मनुष्य इसे कयामत (प्रलय) के सम्बन्ध में बताते हैं, अर्थात् प्रथम ईश्वर ने मनुष्य को मृतक से जीवित किया, इसके पीछे मर जाएँगे और कयामत के दिन फिर जीवित होंगे, परन्तु ये दोनों बातें टिप्पणी मात्र हैं, और वास्तविक अर्थ के नितान्त विरुद्ध हैं, क्योंकि मृत्यु शरीर और जीवात्मा का वियोग है तो मानो पहले शरीर और जीवात्मा पृथक् थे। खुदा ने उनको मिलाकर जीवित किया, फिर पृथक् करेगा और फिर जीवित करेगा, यावत् वे खुदा की ओर न फिर जावें अर्थात् मुक्त न हो जावें।
      कतिपय मुसलमानों का यह आक्षेप होगा कि मनुष्य के जीवात्मा का पशु-शरीर में प्रवेश करना पुनर्जन्म है और इससे इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता, परन्तु कुरान शरीफ में यह भी दिखाया है कि एक कौम (जाति) पर नाराज़ होकर खुदा ने आज्ञा दी कि वे सूअर और बन्दर हो जावें।
      अब बहुत-से लोग कहते हैं कि वे जीते जी बन्दर और सूअर हो गये। प्रथम तो यह बात ही असत्य है, परन्तु इस असम्भव को भी सम्भव मानकर हम कह सकते हैं कि मनुष्य-जीवात्मा का कर्मफल-भोग के लिए पशुयोनि में आना कुरान से सिद्ध है।
      संसार में कोई मनुष्य पुनर्जन्म को माने बिना ईश्वर के गुणों को पूर्णतया सिद्ध नहीं कर सकता। जितने आक्षेप पुनर्जन्म के विरोधियों की ओर से किये जाते हैं, वे केवल अनभिज्ञता के कारण होते हैं, अन्यथा कोई भी बुद्धिमान् पुनर्जन्म पर आक्षेप नहीं कर सकता।
      पुनर्जन्म के समर्थन में प्रकृति के नियम में पग-पग पर उदाहरण विद्यमान हैं, परन्तु कतिपय मनुष्य शरीर को जीवात्मा का निवासस्थान नहीं बताते, किन्तु जीव को शरीर का सार मानते हैं। इसी प्रकार और भूलें हैं जिसके कारण वे जीवात्मा का दूसरे शरीर में जाना उसके रूप का बदलना मानते हैं। समस्त झंझट जो पुनर्जन्म के विरुद्ध फैला हुआ है, वह केवल प्रकृति और जीव को अनादि न मानने के कारण उत्पन्न हुआ है, अत: प्रत्येक मनुष्य को प्रकृति और जीवात्मा के अनादित्व पर हमारे लेख 'प्रकृति का प्राचीनत्व माद्दे की क़दामत और जीवात्मा' के अस्तित्व में प्रमाण देखना चाहिए। यदि इसपर भी शान्ति न हो तो 'रद्द-तनासुख' का उत्तर जो पादरी गुलाम मसीह के उत्तर में लिखा गया है देखना उचित है।


 लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
पुस्तक - दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह


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