फ्यूचर लाइन टाईम्स
न्याय को प्रायः अन्धा कहा जाता है, क्योंकि वह निर्णय करते समय केवल कानून को देखता है, व्यक्ति को नहीं; पर अंग्रेजी राज में कभी-कभी न्यायाधीश भी अन्धों की तरह व्यवहार करते थे। क्रांतिवीर अशोक नंदी को इसका दुष्परिणाम अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा।
अशोक नंदी एक युवा क्रांतिकारी था। देखने में वह दुबला पतला तथा अत्यन्त सुंदर था; पर उसके दिल में देश को स्वाधीन कराने की आग जल रही थी। इसीलिए वह क्रांतिकारी दल में शामिल होकर बम बनाने लगा। एक बार पुलिस ने बम फैक्ट्री पर छापा मारा, तो वह भी पकड़ा गया। इसलिए उसे जेल में बंद कर 'अलीपुर बम कांड' के अन्तर्गत मुकदमा चलाया गया।
पुलिस ने उस पर दो मुकदमे लाद दिये। एक मुकदमा विस्फोटक पदार्थों से संबंधित था, तो दूसरा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध का। क्रांतिकारी लोग सावधानी रखते हुए बम की सारी सामग्री एक ही जगह नहीं बनाते थे। इससे विस्फोट होने के साथ ही अन्य कई तरह के खतरे भी थे। जहां से अशोक नंदी पकड़ा गया, वहां बम का केवल एक भाग ही बनता था। इस आधार पर वकीलों ने बहस कर उसे निर्दोष सिद्ध करा दिया।
पर दूसरे मुकदमे में उसे सात वर्ष के लिए अंदमान जेल का दंड दिया गया। अशोक के परिजनों ने इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की। इसलिए उसे अंदमान भेजना तो स्थगित हो गया; पर जेल में उसे अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया। इससे वह जोड़ों की टी.बी. से ग्रस्त हो गया।
उच्च न्यायालय में कोलकाता के प्रसिद्ध देशभक्त वकील श्री चितरंजन दास ने अशोक नंदी का मुकदमा लड़ा। चितरंजन दास जी की योग्यता की देश भर में धाक थी। उन्होंने न्यायाधीश से अशोक नंदी की जमानत का आग्रह करते हुए कहा कि एक मुकदमे में वह निर्दोष सिद्ध हो चुका है। दूसरे पर उच्च न्यायालय में विचार हो रहा है। फिर उसका स्वास्थ्य भी बहुत खराब है। अतः उसे जमानत पर जेल से छोड़ देना चाहिए।
पर न्यायाधीश ने इन तर्कों को नहीं सुना। उसने अपील ठुकराते हुए कहा कि अभियुक्त को दुमंजिले अस्पताल के हवादार कमरे में रखा गया है। उसका इलाज भी किया जा रहा है। इतनी अच्छी सुविधाएं उसे अपने घर में भी नहीं मिलेंगी। अतः उसे जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता।
अब श्री चितरंजन दास ने अशोक नंदी के पिताजी को सुझाव दिया कि वे बंगाल के गवर्नर महोदय के पास जाकर अपनी बात कहें। यदि वे चाहें, तो अशोक की जमानत हो सकती है। मरता क्या न करता; अशोक के पिताजी ने गवर्नर महोदय के पास जाकर प्रार्थना की। उनका दिल न्यायाधीश जैसा कठोर नहीं था। उन्होंने प्रार्थना स्वीकार कर ली।
अब न्यायालय के सामने भी उसे छोड़ने की मजबूरी थी। 26 नवम्बर, 1909 को न्यायाधीश ने अशोक नंदी को निर्दोष घोषित कर रिहाई के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिये; पर मुक्ति के कागज लेकर जब पुलिस और अशोक के परिजन जेल पहुंचे, तो उन्हें पता लगा कि वह तो इस जीवन से ही मुक्त होकर वहां जा चुका है, जहां से कोई लौटकर नहीं आता।
इस प्रकार न्यायालय की कठोर प्रक्रिया ने एक 19 वर्षीय, तपेदिक के रोगी, युवा क्रांतिवीर को जेल के भीतर ही प्राण देने को बाध्य कर दिया।
संदर्भ : क्रांतिकारी कोश
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