फ्यूचर लाइन टाईम्स
बन्धन का मुख्य कारण अविद्या है, अविद्या का यहां अर्थ है - अनित्य, अपवित्र, दु:खदायी व जड पदार्थों से नित्य, पवित्र, सुखदायी व चेतन जैसा व्यवहार करना ।
सब प्रकार के दु:खों व जन्म मरण के बन्धनों से छूट कर एक परा काल तक पूर्ण आनन्द में रहना मुक्ति है । परा काल की अवधि शास्त्रानुसार ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष है । मोक्ष में जीवात्मा अपनी स्वाभाविक शक्तियों और ईश्वर के आश्रय आनन्द में रहता है,किसी भी ग्रह उपग्रह नक्षत्र में जा सकता है, अन्य मुक्त आत्माओं से वार्तालाप कर सकता है अर्थात मुक्ति में जीव अव्याहत गति से आता जाता है,चाहे तो किसी एक स्थान पर भी रह सकता है । मनुष्य जीवन का मुख्य लक्ष्य भी यही है, इसे पाने के लिए योग के आठ अंगों अर्थात यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि का निरन्तर विद्यापूर्वक तपपूर्वक ब्रह्मचर्यपूर्वक श्रद्धापूर्वक कई जन्मों तक अभ्यास करना होता है । इस महान आनन्द को पाने के लिए यदि १०-२०-५० जन्म लग जाएं तो भी बडे ही लाभ का सौदा है । मोक्ष की तीव्र इच्छा रखने वाले को मुमुक्षु कहते हैं और विधिपूर्वक प्रयास करने वाले मुमुक्षुओं पर ईश्वर अवश्य कृपा करते हैं । मनुष्य जन्म को मात्र कुछ धन, सम्पत्ति ,सन्तति, पद , प्रतिष्ठा आदि को अर्जित करने में खो देना बडे घाटे का सौदा है|
मोक्ष को काल्पनिक मानना, मोक्ष में जीव का ईश्वर में लय होना मानना,मोक्ष की उपेक्षा करना और मोक्ष के लिए प्रयास न करना बहुत बडी भूल है,बहुत बडी हानि है और मनुष्य जन्म का निरादर करना है अपमान करना है । मूर्तियों के दर्शन करने से, तीर्थ यात्रा करने से, राम नाम जपने से, शिवलिंग पर जल चढाने से, गंगा स्नान करने से मोक्ष हो जाता है अथवा मोक्ष में जीव किसी गोलोक, शिवलोक,बैकुण्ठ वा चौथे सातवें आसमान में जाकर वस जाता है और सब भोग भोगता है ...आदि आदि बेतुकी बातें सब मूर्ख अज्ञानी व पामर लोगों की कल्पनाएं हैं|
शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म, शुद्ध उपासना से ही अविद्या को दूर किया जा सकता है । शुद्ध ज्ञान का अर्थ है- सत्संग स्वाध्याय से ईश्वर जीव प्रकृति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना । शुद्ध कर्म का अर्थ है- वेदानुकूल आचरण व फल की इच्छा से रहित हो कर कर्म करना । शुद्ध उपासना का अर्थ है- व्यवहार काल में यम नियमों का पालन करना और उपासना काल में केवल और केवल ईश्वर के गुणों व उपकारों का चिन्तन करना वा अर्थ सहित ओम् व गायत्री का जप करना ।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में मुक्ति के साधन-
इसी प्रकार परमेश्वर की उपासना करके, अविद्या आदि क्लेश तथा अधर्म्माचरण आदि दुष्ट गुणों का निवारण करके, शुद्ध विज्ञान और धर्मादि शुभ गुणों के आचरण से आत्मा की उन्नति करके, जीव मुक्ति को प्राप्त होता है। अब इस विषय में प्रथम योगशास्त्र का प्रमाण लिखते हैं। पूर्व लिखी चित्त की पांच वृत्तियों को यथावत् रोकने और मोक्ष के साधन में सब दिन प्रवृत्त रहने से, नीचे लिखे हुए पांच क्लेश नष्ट हो जाते हैं। वे क्लेश ये हैं―
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ।। १ ।।
एक (अविद्या), दूसरा (अस्मिता), तीसरा (राग), चौथा (द्वेष) और पांचवां (अभिनिवेश) ।। १ ।।
पहला क्लेश- अविद्या
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्।। २ ।।
उनमें से अस्मितादि चार क्लेशों और मिथ्याभाषणादि दोषों की माता अविद्या है, जो कि मूढ़ जीवों को अन्धकार में फसा के जन्ममरणादि दुःखसागर में सदा डुबाती है। परन्तु जब विद्वान् और धर्मात्मा उपासकों की सत्यविद्या से अविद्या छिन्नभिन्न होके (प्रसुप्ततनु) नष्ट हो जाती है, तब वे जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं।
अविद्या के लक्षण हैं―
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।। ३ ।।
अनित्य अर्थात् कार्य्य जो शरीर आदि स्थूल पदार्थ तथा लोकलोकान्तर में नित्यबुद्धि; तथा जो नित्य अर्थात् ईश्वर, जीव, जगत् का कारण, क्रिया क्रियावान्, गुण गुणी और धर्म धर्मी हैं, इन नित्य पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध है, इनमें अनित्यबुद्धि का होना, यह अविद्या का प्रथम भाग है। तथा अशुचि मल मूत्र आदि के समुदाय दुर्गन्धरुप मल से परिपूर्ण शरीर में पवित्रबुद्धि का करना, तथा तलाब, बावरी, कुण्ड, कूंआ और नदी आदि में तीर्थ पर पाप छुड़ाने की बुद्धि करना और उनका चरणामृत पीना; एकादशी आदि मिथ्या व्रतों में भूख प्यास आदि दुःखों का सहना; स्पर्श इन्द्रिय के भोग में अत्यन्त प्रीति करना इत्यादि अशुद्ध पदार्थों को शुद्ध मानना और सत्यविद्या, सत्यभाषण, धर्म, सत्संग, परमेश्वर की उपासना, जितेन्द्रियता, सर्वोपकार करना, सब से प्रेमभाव से वर्त्तना आदि शुद्धव्यवहार और पदार्थों में अपवित्र बुद्धि करना, यह अविद्या का दूसरा भाग है। तथा दुःख में सुखबुद्धि अर्थात् विषयतृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि दुःख रुप व्यवहारों में सुख मिलने की आशा करना, जितेन्द्रियता, निष्काम, शम, सन्तोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम, मित्रता आदि सुखरुप व्यवहारों में दुःखबुद्धि का करना, यह अविद्या का तीसरा भाग है। इसी प्रकार अनात्मा में आत्मबुद्धि अर्थात् जड़ में चेतनभावना और चेतन में जड़ भावना करना, अविद्या का चतुर्थ भाग है। यह चार प्रकार की अविद्या संसार के अज्ञानी जीवों को बन्धन का हेतु होके उनको सदा नचाती रहती है। परन्तु विद्या अर्थात् पूर्वोक्त अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा में अनित्य, अपवित्रता, दुःख और अनात्मबुद्धि का होना, तथा नित्य, शुचि, सुख और आत्मा में नित्य, पवित्रता, सुख और आत्मा बुद्धि करना यह चार प्रकार की विद्या है। जब विद्या से अविद्या की निवृत्ति होती है, तब बंधन से छूट के जीव मुक्ति को प्राप्त होता है।
दूसरा क्लेश―अस्मिता
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता।। ४ ।।
दूसरा क्लेश अस्मिता कहाता है अर्थात् जीव और बुद्धि को मिले के समान देखना; अभिमान और अहंकार से अपने को बड़ा समझना इत्यादि व्यवहार अस्मिता जानना। जब सम्यक् विज्ञान से अभिमान आदि के नाश होने से इसकी निवृत्ति हो जाती है, तब गुणों के ग्रहण में रुचि होती है।।
तीसरा क्लेश― सुखानुशयी रागः।। ५ ।।
राग, अर्थात् जो जो सुख संसार में साक्षात् भोगने में आते हैं, उनके संस्कार की स्मृति से जो तृष्णा के लोभसागर में बहना है इसका नाम राग है। जब ऐसा ज्ञान मनुष्य को होता है कि सब संयोग, वियोग, संयोगवियोगान्त हैं अर्थात् वियोग के अन्त में संयोग और संयोग के अन्त में वियोग तथा वृद्धि के अन्त में क्षय और क्षय के अंत में वृद्धि होती है, तब इसकी निवृत्ति हो जाती है।।
चौथा क्लेश― दुःखानुशयी द्वेषः।। ६ ।।
चौथा द्वेष कहाता है अर्थात् जिस अर्थ का पूर्व अनुभव किया गया हो उस पर और उसके साधनों पर सदा क्रोधबुद्धि होना। इसकी निवृत्ति भी राग की निवृत्ति से ही होती है।।
पांचवां क्लेश― स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारुढोऽभिनिवेशः ।।७ ।
पांचवां अभिनिवेश क्लेश है, जो सब प्राणियों को नित्य आशा होती है कि हम सदैव शरीर के साथ बने रहें अर्थात् कभी मरें नहीं, सो पूर्व जन्म के अनुभव से होती है। और इससे पूर्व जन्म भी सिद्ध होता है। क्योंकि छोटे छोटे कृमि चिंवटी आदि जीवों को भी मरण का भय बराबर बना रहता है। इसी से इस क्लेश को अभिनिवेश कहते हैं। जो कि विद्वान् मूर्ख तथा क्षुद्रजन्तुओं में भी बराबर दीख पड़ता है। इस क्लेश की निवृत्ति उस समय होगी कि जब जीव, परमेश्वर और प्रकृति अर्थात् जगत् के कारण को नित्य और कार्यद्रव्य के संयोग वियोग को अनित्य जान लेगा। इन क्लेशों की शान्ति से जीवों को मोक्षसुख की प्राप्ति होती है ।।
आदि शंकराचार्य ने सत्संग , विवेक, वैराग्य ,षट सम्पत्ति व मुमुक्षुत्व की भावना को मोक्ष प्राप्ति का साधन बताआ है जो पतंजलि योगदर्शन के अष्टांग योग का ही दूसरा रुप है|
ऋग्वेद १.२४.१,२ यजुर्वेद ३१.१८ व ४०.८,१४ में मुक्ति का उपदेश है ।
योग दर्शन, न्याय दर्शन, सांख्यदर्शन व वेदों उपनिषदों में भी मुक्ति का उपदेश है|
ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे- मुण्डक उपनिषद् ३.२.६
में कहा गया है कि परा काल के अन्त में मुक्ति सुख को छोड के जीव पुन: संसार में आते हैं|अपने अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभाते हुए मोक्ष के लिए पूरी लग्न व श्रद्धा से प्रयास करना करवाना सब मनुष्यों का परम कर्तव्य है|
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