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महाभारत व गीता में मिलावट

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


गीता व्यास जी द्वारा रचित महाभारत के "भीष्म-पर्व" का एक छोटा सा भाग है, उस 24000 श्लोकों के व्यास जी द्वारा रचित महाभारत में आज 1 लाख 20 हजार से भी ऊपर श्लोक पाए जाते हैं, जो चार गुना  मिलावट का स्पष्ट प्रमाण है। फिर निश्चित ही गीता इस परिवर्तन से अछूत नहीं रही होगी। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि महाभारत के मौलिक स्वरूप में महाराज श्रीकृष्ण एक महामानव और वैदिक धर्म के महान प्रकाशस्तम्भ हैं, परन्तु परमात्मा नहीं। महाभारत में श्रीकृष्ण ने स्वयं ही स्पष्ट रूप से घोषित कर रखा है कि-


अहं हि तत्करिष्यामि परं पुरुषकारतः दैवं तु न मया शक्यं कर्म्म कर्तुं कथञ्चन।
   -उद्योग पर्व ७९/५/६


अर्थात मैं यथा-साध्य मनुष्योचित प्रयत्न ही कर सकता हूं परन्तु दैव के कार्यों में मेरा कोई वश नहीं।


महाभारत में ऐसे प्रमाण यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। जब बात गीता की आती है तो गीता में भी श्रीकृष्ण चन्द्र की का यह रूप दिखाई देता है।जिसमे वे स्वयं को परमात्मा न कहकर अपने से भिन्न किसी परमात्मा का कथन करते हैं और अर्जुन को सब प्रकार से केवल उसी की शरण में जाने का उपदेश देते हैं। देखें- 


ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया


अर्थात हे अर्जुन! ईश्वर सभी भूत-प्राणियों में हृदय में निवास करता है, शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए माया के द्वारा सभी मनुष्य भ्रमवश भटकते रहते हैं।


तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारतः तत्प्रसादात् परमशान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम


अर्थात हे भारत! तू सभी भावों से सब प्रकार से केवल उसी परमात्मा की शरण में जा। उसी की कृपा से तू परम् शांति तथा सनातन शाश्वत परमधाम मोक्ष को प्राप्त होगा।


- गीता अध्याय 18, श्लोक 61, 62


परन्तु इसके तुरंत पश्चात सम्प्रदायी मिलावट-खोरों ने वहीं अक्षम्य खेल खेला है, जैसा कि अन्यत्र भी महाराज श्रीकृष्ण को परमात्मा बनाने के लिए किया है। परन्तु आज स्थिति यह है कि चाहे कितनी भी तर्क-बुद्धि की बात करो अवतारवादी पूर्वाग्रही लोग कहते रहते हैं कि गीता में मिलावट का कोई लिखित प्रमाण नहीं। परन्तु महाभारत में ही उनके मुंह पर एक तमाचा है ।


महाभारत के भीष्मपर्व के 43वें अध्याय के आरंभ के कुछ श्लोकों में गीता-माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा हैः-


षट्शतानि सविंशानि श्लोकानां प्राह केशवः। अर्जुनः सप्तपंञचाशत् सप्तषष्टिं तु संजयः। धृतराष्ट्रः श्लोकमेकं गीताया मानमुच्यते।।


अर्थात् ''गीता में केशव कृष्ण के 620, अर्जुन के 57,संजय के 67, और धृतराष्ट्र का 1;  इस प्रकार कुल मिलाकर 745 श्लोक हैं। मद्रास इलाके में जो पाठ प्रचलित हैं उसके अनुसार कृष्णाचार्यद्वारा प्रकाशित महाभारत की पोथी में ये श्लोक पाये जाते हैं; परन्तु कलकत्ते में मुद्रित महाभारत में ये नहीं मिलते। आज गीताप्रेस से प्रकाशित गीता में केवल 700 श्लोक मिलते हैं, और जो भिन्न-भिन्न वाचकों के श्लोक बताये गए हैं उनमें बहुत अधिक अंतर है, 45 श्लोक कम भी। इससे सिद्ध है कि वर्तमान गीता में न केवल श्लोक मिलाये गए हैं बल्कि मूल श्लोको को निकाला भी गया है। कुल मिलाकर भारी भरकम परिवर्तन। गीता के लिए यह श्लोक-परिणाम तब का है जब गीता में 745 श्लोक सर्वप्रचलित रहे होंगे, गीता के प्रसंगों के अनुसार अधिक सम्भव है कि मूल गीता में श्लोक आज से बहुत कम रहे होंगे। बाली द्वीप से गीता की एक प्रति प्राप्त हुई है जिसमें मात्र 70 श्लोक ही हैं । आर्य समाज के उदयकाल से ही आर्य-विद्वानों द्वारा गीता के मूल स्वरूप की खोज आरम्भ कर दी गई थी, कुछ लोगों ने गीता के सभी श्लोकों को प्रक्षेपरहित मानकर परमात्मसूचक श्लोकों की भी अपने पूर्वाग्रह से व्याख्या की। कुछ लोगों ने सम्पूर्ण गीता को ही प्रक्षिप्त घोषित करने का प्रयत्न किया। परन्तु उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि सम्वत 1924 में कर्णवास में श्री केशरीलाल कायस्थ जी ने गीता के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी से पूछा, तो उनका उत्तर था- 


गीता में सम्प्रदायी लोगों ने बहुत से श्लोक मिला दिए हैं, उसमें 7, 9, 10, 11, 12 अध्याय तो समग्र प्रक्षिप्त हैं और अन्य अध्यायों में भी किसी में 2, किसी में 10, किसी मे 5 श्लोक अवतारवादादि के प्रक्षिप्त हैं, उनको छोड़कर शेष गीता शुद्ध है।
गीता लगभग पांच हजार साल से है और इसमें महाभारत व मनुस्मृति की तरह बहुत मिलावट हो चुकी है । यदा यदा हि धर्मस्य....इस श्लोक का मात्र इतना भावार्थ है कि कृष्ण चाहते थे कि जब जब धर्म की हानि हो वे पुनः पुनः जन्म लेकर धर्मात्मा पुरुषों की रक्षा कर सकें । वेद शाश्वत हैं अनादि काल से हैं चारों वेद उपलब्ध हैं । वेद में ईश्वर ने बार यह स्पष्ट किया है कि वह अजन्मा है अवतार नहीं लेता । वेद की बात पर किसी को शंका नहीं करनी चाहिए ।

हमारे आर्यवर्त भारत देश में सृष्टि के आदि से लेकर महाभारत काल तक एक निराकार परमात्मा की ही उपासना पद्धति रही है । यह साकार पूजा, मूर्ति पूजा का रोग स्वार्थी लोगों ने लगाया है । आज सब नेता अभिनेता व जनता इस रोग से ग्रस्त हैं । यज्ञ और योग ही वास्तविक वेदानुकूल वैज्ञानिक पूजा पद्धति है । मुगलों व अंग्रेजों की हजार साल की दासता के दौरान हमारे देश के नगरों व सडकों का नाम ही नहीं बदला गया अपितु हमारा व हमारे देश का नाम भी बदल दिया गया हम आर्य वा भारतीय से हिन्दू हो गये, हमारा देश आर्यवर्त वा भारत से हिन्दुस्तान व इंडिया हो गया । वे लोग यहां ही नहीं रुके उन्होंने हमारे इतिहास को बिगाड़ कर आर्यों को विदेशी तक कह डाला, हमारे अनेक ग्रन्थों में मिलावट कर डाली, हमारा रहन सहन खानपान बदल डाला, हमारी भाषा व वेशभूषा बदल डाली, हमारी सोच बदल डाली, करोड़ों लोगों को मुसलमान व ईसाई बना डाला । रही सही कसर आस्था के नाम पर नाना प्रकार के अन्धविश्वास व पाखंड फैला कर स्वार्थी पण्डे पुजारियों ने पूरी कर दी । ऋषि दयानंद ने पण्डो मुल्लों पादरियों के पाखंड को नाश कर पुनः सबको आर्य वा वैदिक धर्मी बनाने के लिये संघर्ष किया और आर्य समाज रुपी आंदोलन खडा किया तो उन्हें विष देकर मार डाला गया । इस आर्यवर्त देश का पुन: उद्धार हो सकता है तो आर्य समाज से मिल कर काम करने से ही हो सकता है बौद्धिक क्रांति लाई जा सकती है तो सत्यार्थ प्रकाश के प्रचार प्रसार से ही लाई जा सकती है ।


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