फ्यूचर लाइन टाईम्स
अब जबकि सरकार बनाने की विफलताओं के बीच महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लग गया है तो इसे कुछ उदाहरणों से समझने की आवश्यकता है। विचार कीजिए कि मधुमेह रोगी की इच्छा रसगुल्ला खाने की है और रसगुल्ला मयस्सर भी है। वैसे भी रसगुल्ले की स्वाद क्षमता मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति से अधिक कौन जानता है। तो अब रोगी क्या करे?न खा पाने की विवशता ऐसी मर्मांतक पीड़ा है जिसे जाहिर करना और ज्यादा मुश्किल है। एक और उदाहरण देखें।चौके में दूध से भरी थाली रखी है। बिल्ली के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है परंतु घर का मालिक डंडा लेकर बैठा है।दूध छोड़ना जान देने के बराबर है परंतु डंडे को जान कैसे दी जा सकती है। इस स्थिति में केवल सुप्रीम कोर्ट बचता है। वहां शिवसेना क्या कहेगी? यही कि हम मधुमेह को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं या दूध पीने के लिए हमें प्रयास करने का और समय मिलना चाहिए। सत्ता से सेवा का फलसफा कोई नया नहीं है।हर हाल में सत्ता हासिल करना शर्मिंदगी का विषय भी नहीं रहा। घुटने टेक कर अपने जन्मों के विरोधियों से याचना करना भी लोकतंत्र को अवरूद्ध नहीं करता। मेरे पत्रकार मित्र गुलाब सिंह भाटी कहते हैं कि यदि बंद कमरे में दो चपत खाकर भी बाहर गुर्राने का हक मिल जाए तो बुरा नहीं।काश ऐसा हो सकता। शिवसेना के संजय राउत अपने बयान की मर्यादा रख पाते कि इसमें कोई संदेह नहीं कि अगला सीएम शिवसैनिक ही होगा। अभी भी ऐसा हो सकता है। राजनीति अवसरों का क्षेत्र है। हां शिवसेना को दंडवत लेटने का अभ्यास कर लेना चाहिए।
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