-->

क्या डॉक्टर फिरोज खान की नियुक्ति गलत है? डॉ विवेक आर्य  

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में डॉक्टर फिरोज खान की नियुक्ति को लेकर सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया में इन दिनों विवाद छिड़ा हुआ हैं। एक पक्ष उनका समर्थन कर रहा है जबकि दूसरा पक्ष उनका विरोध। 


विरोधी पक्ष की शंकाएं इस प्रकार से हैं-


भारत रत्न मदन मोहन मालवीय जी द्वारा संस्कृत और धार्मिक कर्मकांड विभाग में केवल हिन्दू धर्म को मानने वाले व्यक्ति की नियुक्ति होने का प्रावधान रखा गया था। कोई भी गैर हिन्दू इस पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। 


एक तर्क यह दिया जा रहा है कि क्या कोई मुसलमान हिन्दू कर्मकांड की शिक्षा उतनी ही श्रद्धा और आस्था से सिखायेगा जितना एक गुरु शिष्य परम्परा से दीक्षित हिन्दू सिखाएगा?


एक शंका यह है कि मुसलमानों ने जैसे पूर्व में हिन्दू धर्म का अहित किया हैं वैसे ही यह व्यक्ति भी अहित ही करेगा। संस्कृत ज्ञाता मुसलमान वैदिक धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या कर उनका स्वरुप ही बिगाड़ेगा। 


एक शंका यह है कि जब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में केवल मुस्लिम शिक्षक है तो बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में केवल हिन्दू शिक्षक क्यों नहीं?


फिरोज खान की नियुक्ति के पक्ष में दलीले-
 
डॉ फिरोज खान की योग्यता, पारिवारिक पृष्ठ्भूमि, दैनिक दिनचर्या का अवलोकन कीजिये। उनके दादा और पिता जी भोजन करने से पहले गौ ग्रास निकालते हैं। गौ पालक है। हिन्दू मंदिरों में भक्ति के भजन गाते हैं। उनकी इसी श्रद्धा और आस्था का परिणाम था कि उन्होंने जन्मजात होते हुए भी अपने बेटे को संस्कृत में शिक्षा दिलवाई। वो चाहते तो उसे अरबी , उर्दू या फारसी सिखने भी भेज सकते थे।  संस्कृत के पंडित के स्थान पर अजान देने या मदरसे में पढ़ाने वाला मुल्ला-मौलवी भी बना सकते थे। अथवा अनपढ़ रखकर मुर्गे काटने वाला कसाई बना देते। किसी हिन्दू को कोई समस्या न होती। हम उनकी पृष्ठ्भूमि और दैनिक कार्यों की अनदेखी नहीं कर सकते। आप किसी भी हिंदुत्व के समर्थक से पूछे कि हिन्दू कौन है, हिंदुत्व क्या है? उसका उत्तर होगा कि हिंदुत्व एक विशेष जीवनशैली का नाम है और उसका पालन करने वाला हिन्दू हैं।  संघ प्रमुख भी यही बताते है।  क्या डॉक्टर फिरोज खान इस परिभाषा के आधार पर हिन्दू सिद्ध नहीं होते?  


वर्तमान काल में भी अनेक मुस्लिम संस्कृत देश के अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत के प्रोफेसर हैं। यहाँ तक की हिन्दू भी उर्दू , अरबी के शिक्षक हैं। उनकी नियुक्ति पर आज तक कोई विवाद नहीं हुआ तो फिर इस नियुक्ति पर क्यों? 


साक्षात्कार देने आये सभी प्रार्थियों में सबसे अधिक योग्य, स्वाध्याय, संस्कृत में सबसे शुद्ध उच्चारण डॉ फिरोज खान का था। 10 व्यक्तियों ने निष्पक्ष पैनल जिसके सभी सदस्य प्रबुद्ध हिन्दू प्रोफेसर थे जिनमें पूर्व वाईस चांसलर तक शामिल थे ने लिया था। कुलपति के स्पष्ट दिशानिर्देश थे कि बिना किसी भेदभाव के सबसे योग्य पात्र का  शिक्षा की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए  चयन किया जाये। देश के सभी शिक्षण संस्थाओं में योग्यता ही शिक्षकों की नियुक्ति का पैमाना होना चाहिए। 


भक्ति काल में कबीर से लेकर रैदास रसखान आदि मुसलमान हिन्दू मान्यताओं का अनुसरण कर सकते हैं तो वर्तमान में क्यों नहीं? हिन्दुओं को अपनी पाचन शक्ति बढ़ानी चाहिए। क्या संस्कृत शिक्षा और कर्मकांड का पढ़ाना केवल हिन्दुओं का एकाधिकार हैं। नहीं। हमें अपने वैदिक दर्शन पर विश्वास होना चाहिए कि कोई वैदिक दर्शन का पठन-पाठन करेगा तो उसके प्रभाव से मज़हबी संकीर्णता से ऊपर उठकर सोचने को विवश होगा। वैदिक दर्शन अविरल चलती नदी के समान है, जिसमें डुबकी लगाने वाला भी पवित्र हो सकता हैं।  जबकि मज़हबी संकीर्णता सड़े पानी वाले जोहड़ हैं। जो व्यक्ति के मानसिक विकास को कुंद कर देती हैं।  किसी भी मत-सम्प्रदाय, धर्म में पैदा हुआ व्यक्ति अगर निष्पक्ष हैं, तो वह निश्चित रूप से पात्र हैं।    


जहाँ तक जन्मजात ब्राह्मणों की बात है। तो वेद पढ़ने के अधिकारी, मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने के अधिकारी, कर्म कांड करने और सिखाने के अधिकारी ब्राह्मणों की संतान के कुछ उदहारण लीजिये।  क्या आप उन्हें ब्राह्मण कहेंगे? जैसे JNU के प्रोफेसर डी.न. झा जिनकी पुस्तक 'पवित्र गाय का मिथक' में उन्होंने प्राचीन काल में यज्ञो में पशुबलि देने, अतिथि को गोमांस परोसने, गोमांस खाने जैसे असत्य कथन लिखे हैं। क्या वो ब्राह्मण है? जैसे केवल के ईएमएस नंबरदरीपाद जो अपने आपको नास्तिक और कम्युनिस्ट कहते थे और हर वैदिक परम्परा का विरोध करते थे। क्या वो ब्राह्मण है? अथवा पटना के पाठक जी द्वारा स्थापित सुलभ शौचालय में सफ़ाई करने वाले वो अनपढ़ व्यक्ति जिनके नाम के आगे शुक्ल, मिश्रा, पाठक लिखा हैं। जो जनेऊ चढ़ाकर केवल शौच साफ़ करना जानते हैं। मगर विद्या का उनमें कोई प्रकाश नहीं हैं। क्या वो ब्राह्मण है? उत्तर है नहीं। क्यूंकि इन सभी के गुण-कर्म और स्वाभाव तीनों ब्राह्मण वर्ण के नहीं हैं। मनुस्मृति का स्पष्ट विधान देखिये। पढने-पढ़ाने से,चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से,परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद,विज्ञान आदि पढने से,कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।-मनुस्मृति 2/28। डॉक्टर फिरोज खान गुण, कर्म और स्वभाव से अगर ब्राह्मण कर्म कर रहे है तो मनुस्मृति की आज्ञा का पालन करते हुए उन्हें इस पद का पात्र क्यों नहीं समझा जा सकता?


मेरे अनुसार मुसलमानों की मज़हबी कट्टरता और हिन्दू विरोधी मानसिकता इस विवाद का मुख्य कारण हैं। हिन्दू समाज आंख बंदकर मुसलमानों पर विश्वास नहीं करता। इसका मुख्य कारण  इस्लामिक आक्रांताओं का इतिहास, मुल्ला मौलवियों से लेकर मुस्लिम राजनेताओं के हिन्दू विरोधी बयान, मुस्लिम युवाओं द्वारा सोशल मीडिया में हिन्दू विरोधी लेखन, लव जिहाद, हिन्दू पर्वों पर जुलूसों पर पथरबाजी आदि हैं। इसलिए ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। मगर फिरोज खान जैसे कुछ निष्पक्ष मुसलमानों की आवाज़ को दबने से हिन्दुओं को रोकना चाहिए।उन्हें संस्कृत और गौ सेवा के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए। ताकि उन्हें देखकर उनकी कौम में अनेकों को प्रेरणा मिले। हम ठीक उसके विपरीत कर रहे हैं। 


जहाँ तक बनारस का प्रश्न रहा हैं।  वहां के लोग परिवर्तन का कभी स्वागत नहीं करते। इतिहास उठाकर देख लीजिये। स्वामी दयानन्द ने आज से 150 वर्ष पूर्व काशी शास्त्रार्थ के माध्यम से वेदों में मूर्तिपूजा का समर्थन नहीं हैं विषय पर पौराणिकों के साथ शास्त्रार्थ किया था। उस समय वेदों की शिक्षा को स्वीकार करने के स्थान पर काशी के पंडितों ने स्वामी दयानन्द का विरोध किया था। 1945 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में वेद कक्षा का प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन अरबी के प्रोफेसर पंडित महेशप्रसाद मौलवी आलिम फाज़िल की पुत्री कल्याणी देवी ने उस कक्षा में प्रवेश का आवेदन किया। तो काशी के शंकराचार्यों, महामंडेश्वरों के सिंहासन डोल उठे। उनका कहना था कि नारी का वेदों के पठन-पाठन और कर्मकांड में ब्रह्मा बनने की योग्यता नहीं हैं। आर्यसमाज के विद्वानों ने सार्वदेशिक पत्रिका के माध्यम से वैदिक धर्मशास्त्रों में नारी के वेद को पढ़ने  सम्बंधित लेखों का प्रकाशन पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड के नेतृत्व में किया और उन्हें शास्त्रार्थ की चुनौती दी। आर्यसमाज का स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल मालवीय से मिला। तब जाकर विवाद शांत हुआ और कल्याणी देवी को प्रवेश मिला। मगर अपनी कुटिलता का प्रदर्शन करते हुए अगले सत्र से इस कोर्स को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। जो आज उत्पात कर रहे हैं। वे अपने पूर्वजों का अनुसरण ही कर रहे हैं।     


 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ