फ्यूचर लाइन टाईम्स
कभी कभी आंखों में दरिया उमड़ता है, कभी नदी बह निकलती है, कभी ज्वार थमता नहीं और कभी आंखें बस गीली होकर रह जाती हैं। आंसुओं की दास्तां पैदा होने से शुरू होकर ताजिंदगी चलती रहती है। सुनील दत्त-नूतन अभिनीत फिल्म 'मिलन' का यह गीत बहुत मौजूं है,-हजारों तरांह के ये होते हैं आंसू, अगर गम मिले तो ये रोते हैं आंसू, खुशी में भी आंखें भिगोते हैं आंसू.......। क्या पुरुषों को आंसुओं पर काबू रखना चाहिए? क्रिकेट के प्रतीक सचिन तेंदुलकर ने अंतरराष्ट्रीय पुरुष सप्ताह के अवसर पर कल एक खुला पत्र लिखकर जरूरत के मुताबिक आंसुओं को निकल जाने देने की तरफदारी की। उन्होंने कहा पुरुषों को जन्म से ही आंसुओं को काबू में रखने की हिदायत दी जाती है। पुरुष रोने के लिए नहीं बने हैं,रोना पुरुष की कमजोरी दर्शाता है। उन्होंने वक्त जरूरत रोने की तरफदारी करते हुए कहा कि अंतिम टेस्ट मैच से पवेलियन लौटते हुए उनके आंसू निकल आए थे परंतु अपनी भावनाओं को बाहर लाकर उन्होंने अपना पौरुष महसूस किया। सचिन की बात सही है। दरअसल सचिन होकर रोना भी आदर्श हो सकता है। ऐवरेस्ट के शिखर पर पहुंच कर कोई भी अपनी कमजोरी को साहसिक तरीके से व्यक्त कर सकता है। अन्यथा परिस्थितियों के समक्ष आम आदमी से रोने की बजाय हिम्मत से काम लेने की अपेक्षा की जाती है। हालांकि आंसुओं के निष्कासन से मन-मस्तिष्क शांति अनुभव करता है। परंतु समस्या संस्कारों की है। सचिन तेंदुलकर ने आपबीती के माध्यम से पुरुषों को रोने का तार्किक और व्यवहारिक कारण दे दिया है। अब रोना कमजोरी का नहीं बल्कि दोगुने उत्साह से उठ खड़े होने का भी कारण माना जा सकेगा।
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