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दास्तान-ए-आंसू भाग-२ : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



आमतौर पर हृदय का उद्वेग आंसुओं के रूप में आंखों से बाहर आता है।रोने वाले जानते हैं उन्होंने आंसुओं को गंवाकर कितना सुकून पाया है। औरतें रोती हैं और प्रसन्न रहती हैं।हत्भागे पुरुषों की ढेर ऊर्जा आंसुओं की रोकथाम में गुजर जाती है। क्या आंसुओं पर महिलाओं का एकाधिकार है? जयशंकर प्रसाद ने भी कहा,-अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।' तो फिर लक्ष्मीबाई कौन है जिसने आंचल के दूध को कमर से बांध आंखों के पानी को शोलों में बदल दिया था। झलकारी बाई, चांद बीबी, पद्मिनी, पन्ना धाय,राजा रणजीत सिंह की पत्नी राजमाता से लेकर इंदिरा गांधी,शेख हसीना और बेनजीर भुट्टो और न जाने कितनी ललनाएं उदाहरण हैं जिन्होंने आंसुओं की ओट लेकर अपनी बेचारगी का प्रदर्शन नहीं किया। दरअसल जहां तनाव है वहां आंसू नहीं ठहरते। तनाव से मुकाबला करने वाले के आंसू कहीं छोड़कर नहीं जाते। कभी आंसू सूख भी जाते हैं।रोना सहज और स्वाभाविक गुण है। हंसना उतना सामान्य नहीं होता। किसी विद्वान का कथन है,-जो कभी हंसते नहीं उनसे कितने बड़े अपराध की अपेक्षा की जा सकती है। मेरा मत है कि जो कभी रोते नहीं उनकी क्रूरता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। और औरतें यदि रोती भी हैं तो किसकी छाती पर। कोई बाहर रोता है, कोई अंदर रोता।रोने या आंसू बहाने के आधार पर लिंग-भेद खारिज किया जाना चाहिए।


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