फ्यूचर लाइन टाईम्स
पॉलिटिकल साइंस के सेमिनार में एक विद्यार्थी का बयान था कि मेरा तो यक़ीन लोकतंत्र पर से सन 1996 में ही उठ गया था..
कहने लगा कि ये उन दिनों की बात है जब एक शनिवार को मैं मेरे बाक़ी तीनों बहन भाई, मम्मी पापा के साथ मिलकर रात का खाना खा रहे थे ।
पापा ने पूछा:- कल तुम्हारे चाचा के घर चलें या मामा के घर?
हम सब भाइयों बहनों ने मिलकर बहुत शोर मचा कर चाचा के घर जाने को कहा, सिवाय मम्मी के जिनकी राय थी कि मामा के घर जाया जाए।
बात बहुमत की मांग की थी और अधिक मत चाचा के खेमे में पड़े थे ...बहुमत की मांग के मुताबिक़ तय हुआ कि चाचा के घर जाना है। मम्मी हार गईं। पापा ने हमारे मत का आदर करते हुए चाचा के घर जाने का फैसला सुना दिया। हम सब भाई बहन चाचा के घर जाने की ख़ुशी में जा कर सो गये।
रविवार की सुबह उठे तो मम्मी गीले बालों को तौलिए से झाड़ते हुए बमुश्किल अपनी हंसी दबा रहीं थीं..उन्होंने हमसे कहा के सब लोग जल्दी से कपड़े बदल लो हम लोग मामा के घर जा रहें हैं।
मैंने पापा की तरफ देखा जो ख़ामोशी और तवज्जो से अख़बार पढ़ने की एक्टिंग कर रहे थे.. मैं मुंह ताकता रह गया..
बस जी! मैंने तो उसी दिन से जान लिया है कि लोकतंत्र में बहुमत की राय का आदर... और वोट को इज़्ज़त ... सब ढकोसले है।
"असल फैसला तो बन्द कमरे में उस वक़्त होता है जब ग़रीब जनता सो रही होती है"
इसके बाद उस विद्यार्थी ने पोलिटिकल साइंस छोड़कर इकोनॉमिक्स ले ली।.
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