मेरे देव दयानन्द की कालजयी वाणी के प्रभाव से इस तरह मस्जिदों के मौलवी भी शुद्ध वैदिक धर्म को स्वीकार करते हैं। पढ़ें भूतपूर्व मौलवी व अद्यतन प्रखर आर्यनेता के बारे में उनकी ही जुबानी
आर्य समाज में कब और कैसे आया मैं ?
आज ही के दिन 30, नवम्बर 1983 को मैंने इसलाम को अलविदा कहकर सत्य सनातन वैदिक धर्म को अपनाया था | इस विचार को पूरा पढ़े सत्य को जानें |
इसका कारण बना सत्यार्थ प्रकाश, मैं नसोली या, बावली, बरवाला में बड़ी मस्जिद में इमाम, रहते फज़र और ईशा के अजान के बाद, सुबह शाम मानवता पर माइक में तकरीर किया करता था | ग्रामीण लोग बड़े ही खुश थे सब लोगों में बंगाली मौलवी की धाग जमी थी दूरदराज से लोग शारीरिक और आत्मिक चिकित्सा के लिए आया करते थे |
इसी बरवाला के विज्ञानं के अध्यापक श्रीकृषपाल सिंह गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में कार्य रत थे – मेरे बारे में अपने गुरुकुल के संचालक स्वमी शक्तिवेश जी से चर्चा की मुझे गुरुकुल आने के लिए निमंत्रण मिला | समय निकालकर मैं पहुंचा,एक रात रहकर सुबह जब मैं चलने लगा – गुरुकुल के मंत्री धर्मवीर जी ने उर्दू वाली सत्यार्थ प्रकाश मुझे उपहार दिया |
मेरे लिए आसन था उर्दू पढना और इसमें खूबी यह थी की कुरान की आयतें देखकर मैं आश्चर्य चकित हुवा | उसे पढ़कर 25 जगह बड़े बड़े मदरसों में जहाँ जहाँ दारुल इफ्ताह {फतवा देने की व्यवस्था} है उन्हें लिखा रिप्लाई भेजने के बाद भी 7 जगह से जवाब मिला था | पर सवालों का जवाब नहीं था सपने ऊटपर टांग वाली बातें की ज़वाब से तसल्ली नहीं मिली | फिर गुरुकुल से संपर्क किया और आज ही के दिन हजारों की बीच सत्य सनातन वैदिक धर्म को अपनाया | मैंने उसी दिन अपने वक्तव्य में कहा मैं धर्म नहीं समाज बदल रहा हूँ, धर्म मानव मात्र के लिए एक ही है | पंजाब केसरी और कई पत्रिका ने मोटे अक्षरों में छापा था |
मैं किसी के दबाव में या बहकावे में नहीं सत्य को जान तथा समझकर ही अपनाया अपनी पुस्तक मस्जिद से यज्ञशाला की ओर में बिस्तार से लिखा है | आर्य समाज में उनदिनों में बड़े बड़े विद्वान सन्यासीओं से मिला –एक पक्ष का ज्ञान था वैदिक पक्ष को जानने के लिए गुरुकुल में और आर्य जगत के उनदिनों में शिरमोर विद्वानों का सानिध्य पाता रहा | और सत्य की खोज को परखता रहा – और दोनों के भेद, व फर्क को समझता गया |
आर्य समाज में ऋषि मन्तावों को बहुत गहराई से समझता रहा वैदिक सिधांत क्या है उसके नजदीक आते रहे | आज जो कुछ भी मैं हूँ इसका श्रेय सत्यार्थ प्रकाश को जाता है मैं एक जगह से दुसरे सम्प्रोदाय से आकर सिखा | पर जिनकी है यह मान्यता उन्हों ने इसे नहीं जाना और न अपनाया | कई बार एकेले में बैठकर सोचता हूँ तो अफ़सोस होता है | की जिन्होंने मुझे यह सच्चाई से रूबरू कराया वह लोग और उनके अधिकारी समाज में बैठे लोग वैदिक सिद्धांत को जानते तक नहीं | जिन लोगों की है यह मान्यता और वही लोग इससे अनभिज्ञ है अफ़सोस इन्ही बातो की है | इतना तो समझा वैदिक मान्यता अटल है अकाट्य है, वैदिक मान्यता का कोई मुकाबिला किसी भी मत पंथ मजहब वालों के पास नहीं है | अफ़सोस और परेशानी यही है की जिन लोगों ने दुनिया के मानव कहलाने वालों को ज्ञान दिया आज वही भटके हुए हैं | सत्य से कोसों दूर हैं सत्य से विमुख हैं, दुनिया को रास्ता दिखाने वाले वैदिक धर्मी ही वैदिक सिधांत को नहीं जानते |
मुझे तो ईसाई और बुद्धिष्टों ने कई करोड़ देने के लिए लिखित और ऑडियो में बोल कर दिया है | मैंने यही ज़वाब दिया की तुम्हारे पास वेद नहीं है, सत्य नहीं है सत्य को जानते भी नहीं हो आदि | किन्तु जिस आर्य समाज अथवा हिन्दू समाज ने मुझे वेद दिया वही लोग पदों की लड़ाई में और धन की लालच में वैदिक मान्यता को नकार दिया और एक दुसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में सत्य को ही तिलांजली दिया है | आज यह 36 वर्ष का अंतिम दिन है मेरा इस वेद प्रचार कार्य में
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