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25 नवम्बर पुण्य-तिथि, त्रिपुरा में नरबलि का अन्त ।

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


पूर्वांचल के सात राज्यों में त्रिपुरा भी एक है। 1490 ई. में यहाँ राजा धन्य माणिक्य का शासन था। राजा और उनकी रानी कमला देवी बड़े धार्मिक स्वभाव के थे। उन्होंने काशी और प्रयाग से विद्वानों को बुलाकर अपने राज्य में गंगोत्री, यमुनोत्री, त्रिपुर सुन्दरी, काली माँ आदि के विशाल मन्दिर, तालाब तथा शमशान घाट बनवाये। इस प्रकार वे जनहित के काम में लगे रहते थे।


एक बार रानी एक मन्दिर में पूजा कर रही थी कि उसे एक महिला के रोने का स्वर सुनाई दिया। रानी की पूजा भंग हो गयी, उन्होंने तुरन्त उस महिला को बुलवाया। वह निर्धन महिला थर-थर काँपने लगी। रानी ने उसको पुचकारा, तो वह और जोर से रोने लगी। बहुत समझाने पर उसने बताया कि उसके एकमात्र पुत्र का मैतेयियों ने नरबलि के लिए अपहरण कर लिया है।


रानी सुनकर हैरान रह गयी। वस्तुतः त्रिपुरा में लम्बे समय से नरबलि की परम्परा चल रही थी। शासन की ओर से उस पर कोई रोक भी नहीं थी। महिला ने कहा - रानी जी, मेरा यही एकमात्र पुत्र है। यदि यह मर गया, तो मैं भी अपना जीवन त्याग दूँगी। आपके तो तीन पुत्र हैं, क्या आप अपने एक पुत्र को बलि के लिए देकर मेरे पुत्र की प्राणरक्षा कर सकती हैं ?


रानी स्वयं एक माँ थीं। उन्होंने उस महिला को आश्वासन दिया कि मैं हर स्थिति में तुम्हारे पुत्र की रक्षा करूँगी। महल लौटकर रानी ने राजा से कहा कि क्या हम अपने एक पुत्र को बलि के लिए दे सकते हैं ? राजा ने कहा कि तुम कैसी माँ हो, क्या तुम्हें अपनी सन्तान से कोई प्रेम नहीं है, जो ऐसी बात कह रही हो ? इस पर रानी ने प्रातः मन्दिर वाली पूरी बात उन्हें बताई और नरबलि प्रथा को पूरी तरह बन्द करने का कहा।


राजा बहुत असमंजस में पड़ गया; क्योंकि यह प्रथा बहुत पुरानी थी। इससे राज्य के पंडितों के भी नाराज होने का भय था। रानी ने फिर कहा कि राजा का कर्तव्य केवल कर वसूल करना या नागरिकों की रक्षा करना ही नहीं है। यदि राज्य में कोई कुरीति है, तो उसे मिटाना भी राजा का ही कर्त्तव्य है। इसलिए आपको मेरी बात मानकर इस कुप्रथा का अन्त करना ही होगा।


राजा ने जब रानी के इस दृढ़ निश्चय को देखा, तो उसने तुरन्त ही आज्ञा दी कि आज से नरबलि प्रथा को बन्द किया जाता है। कुछ रूढ़िवादियों ने देवी के नाराज होने का भय दिखाया, तो राजा ने कहा कि जो लोग नरबलि देना चाहते हैं, वे अपनी सन्तानों की बलि देने को स्वतन्त्र हैं; पर छल, बल से अपहरण कर किसी दूसरे की बलि अब नहीं दी जाएगी। 


अब इसका विरोध करने का साहस किसमें था ? इस प्रकार इस कुप्रथा का अन्त हुआ और उस निर्धन महिला को उसका एकमात्र पुत्र वापस मिल गया। सारी जनता धन्य-धन्य कह उठी। इसके बाद राजा ने जनता के कल्याणार्थ अनेक काम किये। उन दिनों प्रयाग में अस्थि विसर्जन और गया में पिण्डदान के लिए जाने में बहुत कठिनाई होती थी। राजा ने मकर संक्रान्ति पर गोमती नदी पर मेला प्रारम्भ किया और वहीं अस्थि विसर्जन और पिण्डदान की व्यवस्था करायी। यह मेला आज भी उस परोपकारी राजा और रानी का स्मरण कराता है। 


राजा ने अनेक धर्मग्रन्थों का स्थानीय भाषा में अनुवाद भी कराया। 25 नवम्बर, 1520 को राजा और रानी दोनों एक साथ ही स्वर्गवासी हुए।


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